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जैन धर्म-दर्शन
अच्युत कल्प हैं । इन सब कल्पों के ऊपर अनुक्रम से नौ कल्पातीत विमान एक-दूसरे के ऊपर स्थित हैं । ये विमान पुरुषाकार लोक के ग्रीवास्थानीय भाग में होने के कारण ग्रैवेयक कहलाते हैं । इनके ऊपर विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध - ये पांच कल्पातीन विमान एक-दूसरे के ऊपर हैं जो सबसे उत्तर अर्थात् प्रधान अथवा श्रेष्ठ होने के कारण अनुत्तर' कहलाते हैं । सौधर्म से अच्युत तक के विमानों में रहनेवाले देव कल्पोपपन्न तथा इनके ऊपर के सभी विमानों में बसनेवाले देव कल्पातीत कहे जाते हैं ।
सर्वार्थसिद्ध विमान के ऊपर बारह योजन की दूरी पर ईषत्प्राग्भार पृथ्वी ( सिद्धशिला ) है । यह खुले छाते के आकार की, पैंतालीस लाख योजन लम्बी-चौड़ी ( गोल ) तथा बीच में आठ योजन मोटी है । अलोक से इसकी दूरी एक योजन है । इस योजन के सबसे ऊपर के भाग में सिद्ध अर्थात् मुक्त आत्माएं अनन्तकाल तक रहती हैं। इस स्थान के बाद लोक का अन्त हो जाता है तथा केवल आकाश अर्थात् अलोक रह जाता है ।
नारकी :
हमलोग मध्यलोक में रहते हैं । ऊर्ध्वलोक में देव रहते हैं तथा अधोलोक में नारकी । अधोलोक में एक के बाद दूसरी
१. दिगम्बर परम्परा में ब्रह्मोत्तर, कापिष्ठ, शुक्र और शतार नामक चार कल्प अधिक माने गये हैं जो क्रमशः छठे, आठवें, नवें और ग्यारहवें क्रम पर हैं ।
२. अनुत्तर अर्थात् जिससे कोई अन्य श्रेष्ठ न हो यानी सर्वश्रेष्ठ । ३. तस्वार्थसूत्र, ४. १७-२०.
४. उत्तराध्ययन, ३६. ५८-६४.
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