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तत्वविचार
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ऐसी इस पृथ्वीसहित सात पृथ्वियां हैं। प्रत्येक पृथ्वी घन जल से घिरी हुई है । घन जल का घेरा घनी हवा के घेरे से घिरा हुआ है। घनी हवा का घेरा तन्वी हवा से घिरा हुआ है । तन्वी हवा का घेरा आकाश पर आधारित है और आकाश अपने आप पर ।
जैसे-जैसे नीचे की ओर बढ़ते जाते हैं वैसे-वैसे नारकी जीवों में कुरूपता, भयानकता आदि विकृतियां बढ़ती जाती हैं । वे अति ताप तथा अति शीत से कष्ट पाते हैं । वे वैसे कर्म करना चाहते हैं जिनसे सुख की प्राप्ति हो पर उनसे वही कार्यं होते हैं जिनसे उन्हें पीड़ा पहुँचती हैं। जब वे एक-दूसरे के निकट आते हैं तो उनका क्रोध बढ़ जाता है और वे अपने पूर्व - जीवन को याद कर कुत्तों और शृगालों की तरह झगड़ते हैं । वे अपने ही बनाये हुए शस्त्रों तथा हाथ, पैर, दाँत आदि से एक-दूसरे को आहत कर टुकड़े-टुकड़े कर देते हैं । चूँकि उनका शरीर वैक्रिय होता है अतः वह पारे की तरह पूर्ववत् जुड़ जाता है । नारकियों को दुष्ट देवों से भी कष्ट प्राप्त होता है जो उन्हें पिघले लोहे का पान, वक्ष से गर्म लोह-स्तम्भ का स्पर्श तथा कांटेदार वृक्षों पर चढ़ने और उतरने को बाध्य करते हैं । इस प्रकार के देव परमाधार्मिक कहलाते हैं जो पहली तीन भूमियों तक जाते हैं । ये एक प्रकार के असुर-देव हैं जो बहुत क्रूर स्वभाववाले तथा पापरत होते हैं । इनका स्वभाव ही ऐसा होता है कि इन्हें दूसरों को सताने में हो आनन्द आता है । इनकी निम्नोक्त पन्द्रह जातियाँ हैं : १. अम्ब, २. अम्बरीष, ३. श्याम, ४. शबल, ५. रुद्र, ६. उपरुद्र, ७. काल, ८. महाकाल, ६. असिपत्र, १०. धनुष, ११. कुम्भ, १२. वालुक, १३. वैतरणी, १४. खरस्वर, १५. महाघोष । नारकी जीवों के जीवन-काल
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