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जैन धर्म-दर्शन
उसकी भवबन्धन से मुक्ति नहीं होती। एक बार समस्त कर्मों का विनाश हो जाने पर पुनः कर्मोपार्जन नहीं होता क्योंकि उस अवस्था में कर्मबन्धन का कोई कारण विद्यमान नहीं रहता । आत्मा की इसी अवस्था को मुक्ति, मोक्ष, निर्वाण अथवा सिद्धि कहते हैं। कर्मबन्ध का कारण :
जैन परम्परा में कर्मोपार्जन अथवा कर्मबन्ध के सामान्यतया दो कारण माने गये हैं : योग और कषाय । शरीर, वाणी और मन की प्रवृत्ति को योग कहते हैं । क्रोधादि मानसिक आवेग कषायान्तर्गत हैं। यों तो कषाय के अनेक भेद हो सकते हैं किन्तु मोटे तौर पर उसके दो भेद किये गये हैं : राग और द्वेष । राग-द्वेषजनित शारीरिक एवं मानसिक प्रवृत्ति ही कर्मबन्ध का कारण है । वैसे तो प्रत्येक क्रिया कर्मोपार्जन का कारण होती है किन्तु जो क्रिया कषायजनित होती है उससे होनेवाला कर्मबन्ध विशेष बलवान् होता है जबकि कषायरहित क्रिया से होने वाला कर्मबन्ध अति निर्बल एवं अल्पायु होता है। उसे नष्ट करने में अल्प शक्ति एवं अल्प समय लगता है। दूसरे शब्दों में, योग और कषाय दोनों ही कर्मबन्ध के कारण हैं किन्तु इन दोनों में प्रबल कारण कषाय ही है।
नैयायिक तथा वैशेषिक मिथ्याज्ञान को कर्मबन्ध का कारण मानते हैं । योग एवं सांख्य दर्शन में प्रकृति-पुरुष के अभेदज्ञान को कर्मबन्ध का कारण माना गया है। वेदान्त आदि दर्शनों में अविद्या अथवा अज्ञान को कर्मबन्ध का कारण बताया गया है। बौद्धों ने वासना अथवा संस्कार को कर्मोपार्जन का कारण माना है । जैन परम्परा में संक्षेप में मिथ्यात्व कर्मबन्ध
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