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________________ तत्त्वविचार २२५ हो। यह तो पदार्थ का स्वाभाविक एवं अनिवार्य धर्म है । इसका वस्तु की सत्ता के साथ अविच्छेद्य सम्बन्ध है। जैसे सत्ता के लिए कोई सहायक कारण अपेक्षित नहीं है वैसे ही परिवर्तन एवं स्थायित्व के लिए भी किसी सहायक कारण की आवश्यकता नहीं है। पदार्य स्वभाव से ही उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्ययुक्त है। इसके लिए काल नामक किसी तत्त्वविशेष की कल्पना अनावश्यक है। पदार्थों में जैसे स्वाभाविक परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है वैसे ही एक-दूसरे के प्रभाव से उत्पन्न परिवर्तन भी दिखाई देता है। कैसा ही परिवर्तन क्यों न हो, वस्तु को परिवर्तनशीलस्वभाव मानना ही होगा। यदि वस्तु स्वभावतः परिवर्तनशील नहीं है तो किसी भी प्रकार से अथवा किसी भी अन्य पदार्थ की उपस्थिति में भी उसमें कोई भी परिवर्तन नहीं हो सकेगा। वैसे पदार्थ परस्पर प्रभावित होते रहते हैं, एक-दूसरे को प्रभावित करते रहते हैं। सामान्यतया परिवर्तन अथवा वर्तना अनिवार्य है, ऐच्छिक नहीं। यह सर्वत्र एवं स्वतः प्रवर्तित है। ___ तब फिर काल क्या है ? वस्तु के किसी भी परिवर्तन, परिणाम अथवा पर्याय को काल की संज्ञा दी जाती है। काल परिवर्तन को समझने का एक संकेत है। यह विविध रूपों में विविध अवस्थाओं का बोध कराता है। वस्तु की विभिन्न अवस्थाओं (पर्यायों ) के आधार पर काल के विभिन्न रूपोंवर्तमान, भूत, भविष्यत्, योगपद्य, क्रमिकत्व, पूर्व, पश्चात् आदि का बोध होता है। समय की गणना में भी पदार्थों का ही आधार लिया जाता है। पदार्थों के अतिरिक्त काल द्रव्य के अणुओं-कालाणुओं की स्वतन्त्र सत्ता मानने की कोई आवश्यकता नहीं है। समस्त पदार्थ नित्य स्वभावतः परिवर्तन अवस्थाओं (पर्याया का बोध कराता है। यह विविध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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