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________________ २२६ जैन धर्म-दर्शन शील हैं । यह परिवर्तन स्वतः होता है । काल न तो इसका उपादानकारण है, न निमित्तकारण ही । विपरीत इसके यह परिवर्तन ही काल का आधार है। कुछ जैन दार्शनिकों ने काल को स्वतन्त्र द्रव्य न मानते हुए अन्य द्रव्यों के पर्याय के रूप में माना भी है । विश्व का स्वरूप : विश्व, जगत् अथवा संसार के लिए जैन परम्परा में सामान्यरूप से लोक शब्द का व्यवहार हुआ है । यह लोक क्या है ? इसका उत्तर दो रूपों में मिलता है । कहीं पर पंचास्तिकाय को लोक कहा गया है तो कहीं पर षद्रव्य को लोक माना गया है । व्याख्याप्रज्ञप्ति ( भगवतीसूत्र ) में एक स्थान पर बताया गया है कि लोक पंचास्तिकायरूप है। पंचास्तिकाय ये हैं : १. धर्मास्तिकाय, २. अधर्मास्तिकाय, ३. आकाशास्तिकाय, ४ जीवास्तिकाय ५. पुद्गलास्तिकाय । प्रवचनसार में लोक का स्वरूप बताते हुए कहा गया है कि जो आकाश पुद्गल और जीव से संयुक्त है तथा धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और काल से भरा हुआ है वह लोक है ।" सामान्यतया लोक में छः तत्त्व हैं : १. जीव, २. पुद्गल, ३. धर्म, ४. अधर्म, ५. आकाश, ६. काल । 3 लोक इन छः तत्त्वों का समुच्चय है । इन छः तत्त्वों में सारा लोक समाविष्ट हो जाता है। इनके अतिरिक्त लोक कुछ नहीं है। ये छः तत्त्व अनादि - अनन्त हैं । ये स्वतः 1 १. व्याख्याप्रज्ञप्ति, १३.४. २. प्रवचनसार, २.३६. ३. जीव अर्थात् चेतन तत्त्व, पुद् गल अर्थात् रूपी जड़ तत्त्व, धर्म अर्थात् गतिसहायक तत्त्व, अधर्म अर्थात् स्थितिसहायक तत्त्व, आकाश अर्थात् अवकाशदाता ( स्थान देनेवाला ) तत्त्व, काल अर्थात् परिवर्तन सहायक तत्त्व । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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