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आचारशास्त्र
मैं मुनि की सामान्य दिनचर्या पर प्रकाश डाला गया है तथा कल्पसूत्र आदि में पर्युषणाकल्प अर्थात् वर्षावास (चातुर्मास ) से सम्बन्धित विशिष्ट चर्या का वर्णन किया गया है ।
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उत्तराध्ययन सूत्र के छब्बीसवें अध्ययन के प्रारम्भ में श्रमण की सामान्य चर्यारूप सामाचारी के दस प्रकार बतलाये गये हैं : १. आवश्यकी, २. नैषेधिकी, ३. आपृच्छना, ४. प्रतिपृच्छना, ५ छन्दना, ६. इच्छाकार, ७. मिथ्याकार, ८. तथाकार अथवा तथ्येतिकार, 8. अभ्युत्थान, १० उपसंपदा ।
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किसी आवश्यक कार्य के निमित्त उपाश्रय से बाहर जाते समय 'मैं आवश्यक कार्य के लिए बाहर जाता हूँ' यों कहना चाहिए। यह आवश्यकी सामाचारी है। बाहर से वापस आकर 'अब मुझे बाहर नहीं जाना है' यों कहना चाहिए। यह नैषेधिकी सामाचारी है। किसी भी कार्य को करने के पूर्व गुरु अथवा ज्येष्ठ मुनि से पूछना चाहिए कि क्या मैं यह कार्य कर लूं ? इसे आपृच्छना कहते हैं। गुरु अथवा ज्येष्ठ मुनि ने जिस कार्य के लिए पहले मना कर दिया हो उस कार्य के लिए आवश्यकता होने पर पुनः पूछना कि क्या अब मैं यह कार्य कर लूं. प्रतिपृच्छना है । लाये हुए आहारादि के लिए अपने साथी श्रमणों को आमंत्रित कर धन्य होना छंदना है । परस्पर एक-दूसरे की इच्छा जानकर अनुकूल व्यवहार करना इच्छाकार कहलाता है । प्रमाद के कारण होने वाली त्रुटियों के लिए पश्चात्ताप कर उन्हें मिथ्या अर्थात् निष्फल बनाना मिथ्याकार कहलाता है । गुरु अथवा ज्येष्ठ मुनि की आज्ञा स्वीकार कर उनके कथन का 'तहत्ति' ( आपका कथन यथार्थ है ) कहकर आदर करना तथाकार अथवा तथ्येतिकार कहलाता है । उठने बैठने आदि में अपने से बड़ों के
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