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जैन धर्म-दर्शन
प्रति भक्ति एवं विनय का व्यवहार करना अभ्युत्थान है। भगवती (व्याख्याप्रज्ञप्ति) सूत्र (शतक २५) में अभ्युत्थान के स्थान पर निमन्त्रणा शब्द है। निमन्त्रणा का अर्थ है आहारादि लाने के लिए जाते समय साथी श्रमणों को भी साथ आने के लिए निमन्त्रित करना अथवा उनसे यह पूछना कि क्या आपके लिए भी कुछ लेता आऊं? ज्ञानादि की प्राप्ति के लिए योग्य गुरु का आश्रय ग्रहण करना उपसंपदा है। इसके लिए श्रमण अपने गच्छ का त्याग कर अन्य गच्छ का आश्रय भी ले सकता है। __ मुनि को दिवस को चार भागों में विभक्त कर अपनी दिनचर्या सम्पन्न करनी चाहिए। उसे दिवस के प्रथम प्रहर में मुख्यतः स्वाध्याय, द्वितीय में ध्यान, तृतीय में भिक्षाचर्या तथा चतुर्थ में फिर स्वाध्याय करना चाहिए। इसी प्रकार रात्रि के चार भागों में से प्रथम में स्वाध्याय, द्वितीय में ध्यान, तृतीय में निद्रा एवं चतुर्थ में पुनः स्वाध्याय करना चाहिए। इस प्रकार दिन-रात के आठ पहर में से चार पहर स्वाध्याय के लिए, दो पहर ध्यान के लिए, एक पहर भोजन के लिए तथा एक पहर सोने के लिए है। इससे प्रतीत होता है कि श्रमण की दिनचर्या में अध्ययन का सर्वाधिक महत्त्व है। इसके बाद ध्यान को महत्त्व दिया गया है। खाने-पीने के लिए दिन में एक बार एक पहर का समय दिया गया है । इसी प्रकार सोने के लिए भी रात के समय केवल एक पहर दिया गया है। स्वाध्याय अथवा अध्ययन में निम्नोक्त पांच क्रियाओं का समावेश किया जाता है : वाचना, पृच्छना, परिवर्तना (पुनरावर्तन), अनुप्रेक्षा (चिन्तन) और धर्मकथा।
श्रमण की इस संक्षिप्त दिनचर्या का विवेचन करते हुए बतलाया गया है कि. दिवस के प्रथम प्रहर के प्रारम्भ के
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