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कर्म सिद्धान्त
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रूप क्रिया का जो फल है वही कर्म है। यहाँ कोई यह प्रश्न कर सकता है कि जैसे कृषि आदि का दृष्ट फल धान्यादि है वैसे ही दानादि का फल भी मनःप्रसाद आदि क्यों न मान लिया जाय? इस दृष्ट फल को छोड़कर कर्मरूप अदृष्ट फल की सत्ता स्वीकार करने से क्या लाभ ? इसका उत्तर देते हुए कहा गया है कि मनःप्रसाद भी एक प्रकार की क्रिया है, अतः सचे. तन की अन्य क्रियाओं के समान उसका भी फल मानना चाहिए। वही फल कर्म है। कर्म का मूर्तत्व : ___शरीर आदि के मूर्त होने के कारण तन्निमित्तभूत कर्म भी मूर्त होना चाहिए, इस तर्क को स्वीकार करते हुए जैन दर्शन में कर्म को मूर्त माना गया है। जैसे परमाणुओं का घटादि कार्य मूर्त है अतः परमाणु भी मूर्त है वैसे ही कर्म का शरीरादि कार्य मूर्त होने से कर्म भी मूर्त है। कर्म का मूर्तत्व सिद्ध करने वाले अन्य कुछ हेतु इस प्रकार हैं : ___ कर्म मूर्त है, क्योंकि उससे सम्बन्ध होने पर सुख आदि का अनुभव होता है, जैसे भोजन । जो अमूर्त होता है उससे सम्बन्ध होने पर सुख आदि का अनुभव नहीं होता, जैसे आकाश। ___ कर्म मूर्त है, क्योंकि उसके सम्बन्ध से वेदना का अनुभव होता है, जैसे अग्नि । जो अमूर्त होता है उसके सम्बन्ध से वेदना का अनुभव नहीं होता, जैसे आकाश । १. वही, १६१५-१६१६. २. वही, १६२५. ३. वही, १६२६-१६२७.
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