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ज्ञानमीमांसा
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और गुणप्रत्ययी । भवप्रत्यय अवधिज्ञान देव और नारक को होता है ।" गुणप्रत्यय का अधिकारी मनुष्य या तिर्यश्व होता है । भवप्रत्यय का अर्थ है जन्म से प्राप्त होने वाला । जो अवधिज्ञान जन्म के साथ-ही-साथ प्रकट होता है वह भवप्रत्यय है । देव और नारक को पैदा होते ही अवधिज्ञान प्राप्त होता है । इसके लिए उन्हें व्रत, नियमादि का पालन नहीं करना पड़ता । उनका भव ही ऐसा है कि वहाँ पैदा होते ही अवधिज्ञान हो जाता है । मनुष्य और अन्य प्राणियों के लिए ऐसा नियम नहीं है । मति और श्रुतज्ञान तो जन्म के साथ ही होते हैं, किन्तु अवधिज्ञान के लिए यह आवश्यक नहीं है । व्यक्ति के प्रयत्न से कर्मों का क्षयोपशम होने पर ही यह ज्ञान पैदा होता है । देव और नारक की तरह मनुष्यादि के लिए यह ज्ञान जन्मसिद्ध नहीं है, अपितु व्रत, नियम आदि गुणों के पालन से प्राप्त किया जा सकता है । इसीलिए इसे गुणप्रत्यय अथवा क्षायोपशमिक कहते हैं । यहाँ एक प्रश्न उठ सकता है कि जब यह नियम है कि अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम से ही अवधिज्ञान प्रकट होता है तब यह कैसे कहा जा सकता है कि देव और नारक जन्म से ही अवविज्ञानी होते हैं ? उनके लिए भी क्षयोपशम आवश्यक है । उनमें और दूसरों में अन्तर इतना ही है कि उनका क्षयोपशम भवजन्य होता है अर्थात् उस जाति में जन्म लेने पर अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम हो ही जाता है । वह जाति ही ऐसी है कि जिसके कारण यह कार्य बिना विशेष प्रयत्न के पूरा हो जाता है। मनुष्यादि अन्य जातियों के लिये यह नियम नहीं। वहाँ तो व्रत, नियमादि का विशेषरूप से पालन करना पड़ता है। तभी अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम
१. स्थानांगसूत्र, ७१; नंदीसूत्र, ७-६ तत्त्वार्थ सूत्र, १.२२-२३.
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