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जैन धर्म-दर्शन
मैंने पानी ही पिया । वह पानी था या नहीं, इसका निश्चय करने के लिए उसे दूसरी वस्तु का सहारा नहीं लेना पड़ता । कई बार ऐसे अवसर आते हैं जब व्यक्ति अपने आप अपने ज्ञान के प्रामाण्य का निश्चय नहीं कर पाता । उसे किसी बाह्य वस्तु का सहारा लेना पड़ता है । उदाहरण के लिए एक कमरे में छोटा-सा छेद है । उससे थोड़ा-सा प्रकाश बाहर निकल रहा है । वह प्रकाश दीपक का है या मणि का, इसका निर्णय नहीं हो रहा है । इसके निर्णय के लिए कमरा खोला जाता है । दीपक की बत्ती दिखाई देती है । तेल का प्रत्यक्ष होता है । इन सब चीजों को देखकर यह निश्चय हो जाता है कि मेरा दीपक-विषयक ज्ञान तो सच्चा है और मणि-विषयक ज्ञान झूठा । दीनक-विषयक ज्ञान के प्रामाण्य का निश्चय होता है और मणि-विषयक ज्ञान के अप्रामाण्य का । इस निश्चय के लिए बत्ती, तेल आदि का आधार लेना पड़ा | दूसरा उदाहरण लीजिए। एक जगह सफेद ढेर लगा हुआ है । हमें ऐसी प्रतीति हो रही है कि यह शक्कर है, किन्तु इसका निश्चय कैसे हो कि यह शक्कर ही है । उसमें से थोड़ी-सी मात्रा उठाकर मुँह में डाल ली । मुह मीठा हो गया । तुरन्त निश्चय हो गया कि यह शक्कर है । इस निर्णय के लिए पदार्थ के कार्य या परिणाम की प्रतीक्षा करनी पड़ी। स्वतः निर्णय न हो सका । यदि वही ढेर पहले देखा हुआ होता तो तुरन्त निर्णय हो जाता कि यह शक्कर का ढेर है । उस अवस्था में होनेवाला ज्ञान का प्रामाण्य स्वतः होता । आगे के परिणाम की प्रतीक्षा करने पर होने वाला प्रामाण्य - निश्चय परतः प्रामाण्यवाद के अन्तर्गत है । जैन दर्शन स्वतः प्रामाण्यवाद और परतः प्रामाण्यवाद दोनों का भिन्न-भिन्न दृष्टि से समर्थन करता है । अभ्यासावस्था आदि में होने वाला निश्चय स्वतः प्रामाण्य
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