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माचारशास्त्र
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आधार पर, ३. पक्ष, चर्या अथवा निष्ठा एवं साधन के आधार पर। आसकदशांग, तत्त्वार्थसूत्र, रत्नकरण्डक-श्रावकाचार आदि में संलेखनासहित बारह व्रतों के आधार पर श्रावक-धर्म का प्रतिपादन किया गया है। आचार्य कुन्दकुन्द ने चारित्रप्राभत में, स्वामी कार्तिकेय ने अनुप्रेक्षा में एवं आचार्य वसुनन्दि ने वमनन्दिश्रावकाचार में ग्यारह प्रतिमाओं के आधार पर श्रावक-धर्म का प्ररूपण किया है। पंडित आशाधर ने सागारधर्मामृत में पक्ष, निष्ठा एवं साधन के आधार पर श्रावक-धर्म का विवेचन किया है । इस पद्धति के बीज आचार्य जिनसेन के आदिपुराण (पर्व ३६)में पाये जाते हैं । इसमें सावध क्रिया अर्थात् हिंसा की शुद्धि के तीन प्रकार बताये गये हैं : पक्ष, चर्या और साधन । निर्ग्रन्थ देव, निर्ग्रन्थ गुरु तथा निर्ग्रन्थ धर्म को ही मानना पक्ष है। ऐसा पक्ष रखने वाले गृहस्थ को पाक्षिक श्रावक कहते हैं । ऐसे श्रावक की आत्मा में मैत्री, प्रमोद, करुणा व माध्यस्थ्यवृत्ति होती है । जीवहिंसा न करते हुए न्यायपूर्वक आजीविका का उपार्जन करना तथा श्रावक के बारह व्रतों एवं ग्यारह प्रतिमाओं का पालन करना चर्या अथवा निष्ठा है । इस प्रकार की चर्या का आचरण करने वाले गृहस्थ को नैष्ठिक श्रावक कहते हैं । जीवन के अन्त में आहारादि का सर्वथा त्याग करना साधन है । इस प्रकार के साधन को अपनाते हुए ध्यानशुद्धिपूर्वक आत्मशोधन करने वाले गृहस्थ को साधक श्रावक कहते हैं ।
श्रावक के बारह व्रतों में से प्रथम पाँच अणुव्रत, बाद के तीन गुणव्रत एवं अन्तिम चार शिक्षाव्रत कहलाते हैं। यद्यपि श्वेताम्बर व दिगम्बर ग्रंथों में गुणवतों एवं शिक्षाव्रतों के नामों व गणनाक्रम में परस्पर एवं आन्तरिक दोनों प्रकार के मतभेद हैं तथापि यह कहा जा सकता है कि दिशापरिमाण, भोगो
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