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जैन धर्म-दर्शन
से होते हैं, अतः इनके ४४ ६= २४ भेद हुए । व्यंजनावग्रह मन
और चक्षु को छोड़कर चार इन्द्रियों से होता है, अतः उसके ४ भेद हए। इन २४+४-२८ प्रकार के ज्ञानों में से प्रत्येक ज्ञान पून: वह, अल्प, बहुविध, अल्पविध, क्षिप्र, अक्षिप्र, अनिश्रित, निश्रित, असंदिग्ध, संदिग्ध, ध्रुव और अध्रुव-इस प्रकार बारह प्रकार का होता है ।' ये नाम श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार हैं। दिगम्बर परम्परा में इन नामों में थोडा-सा अन्तर है। उसमें अनिश्रित और निश्रित के स्थान पर अनिःसृत और नि:सृत तथा असंदिग्ध और संदिग्ध के स्थान पर अनुक्त और उक्त का प्रयोग है। बहु का अर्थ अनेक और अल्प का अर्थ एक है । अनेक वस्तुओं का ज्ञान बहुग्राही है । एक वस्तु का ज्ञान अल्पग्राही है । अनेक प्रकार की वस्तुओं का ज्ञान बहुविधग्राही है। एक ही प्रकार की वस्तु का ज्ञान अल्पविधग्राही है । बहु और अल्प संख्या से सम्बन्धित हैं और बहुविध तथा अल्पविध प्रकार या जाति से सम्बन्धित हैं । शीघ्रतापूर्वक होने वाले अवग्रहादि ज्ञान क्षिप्र कहलाते हैं । विलम्ब से होने वाले ज्ञान अक्षिप्र हैं। अनिश्रित का अर्थ हेतु के बिना होने वाला वस्तुज्ञान है। निश्रित का अर्थ पूर्वानुभूत किसी हेतु से होने वाला ज्ञान है। जो अनिश्रित के स्थान पर अनिःसृत और निश्रित के स्थान पर निःसृत का प्रयोग करते हैं उनके मतानुसार अनिःमृत का अर्थ है असकलरूप से आविर्भूत पुद्गलों का ग्रहण और निःसृत का अर्थ है सकलतया आविर्भूत पुद्गलों का ग्रहण । असंदिग्ध का अर्थ है निश्चितज्ञान और संदिग्ध का अर्थ है अनिश्चितज्ञान । अवग्रह १. बहुबहुविधक्षिप्रानिश्रितासन्दिग्धध्र वाणां सेतराणाम् ।
-तत्त्वार्थसूत्र, १.१६. २. सवार्थसिद्धि, राजवातिक आदि, १.१६.
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