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ज्ञानमीमांसा
२६५ ३. अनुस्मरण-भविष्य में उन संस्कारों का जाग्रत होना।' इस प्रकार अविच्युति, वासना और स्मृति तीनों धारणा के अंग हैं । वादिदेवसूरि के अनुसार यह मत ठीक नहीं है। धारणा अवाय-प्रदत्त ज्ञान की दृढ़तमावस्था है। कुछ काल के लिए अवाय का दृढ़ रहना---यही धारणा है। धारणा स्मृति का कारण नहीं बन सकती क्योंकि किसी ज्ञान का इतने लम्बे काल तक वरावर चलते रहना सम्भव नहीं। यदि धारणा इतने लम्बे काल तक चलती रहे तो धारणा और स्मृति के बीच के काल में दूसरा ज्ञान होना सर्वथा असम्भव है क्योंकि एक साथ दो उपयोग नहीं हो सकते ।२ संस्कार एक भिन्न गुण है जो आत्मा के साथ रहता है। धारणा उसका व्यवहित कारण हो सकती है। किन्तु धारणा को सीधा स्मृति का कारण मानना युक्तिसंगत नहीं। धारणा अपनी अमुक समय की मर्यादा के बाद समाप्त हो जाती है। उसके बाद नया ज्ञान पैदा होता है । इस तरह एक ज्ञान के बाद दूसरे ज्ञान की परम्परा चलती रहती है। वादिदेवसूरि का यह कथन युक्तिसंगत है।
- मतिज्ञान के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा-ये चार भेद किए गए। अवग्रह के व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह-ये दो भेद हुए। इनमें से अर्थावग्रह, ईहा, अवाय और धारणा-ये चार प्रकार के ज्ञान श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन, स्पर्शन और मनइन छ: से होते हैं । व्यंजनावग्रह केवल श्रोत्र, घ्राण, रसन और स्पर्शन-इन चार इन्द्रियों से होता है । चक्षु और मन अप्राप्यकारी हैं, अतः इन दोनों से व्यंजनावग्रह नहीं होता । अर्थावग्रह, ईहा, अवाय और धारणा-ये चार पाँच इन्द्रियाँ और मन-इन छ: १. वही, २६१. २. स्याद्वादरत्नाकर, २.१०.
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