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________________ ३५८ जैन धर्म-दर्शन प्रयोग आगमों में देखे जाते हैं । 'स्याद्वाद' ऐसा अखण्ड प्रयोग न भी मिले, तो भी स्याद्वाद सिद्धान्त आगमों में मौजूद है, इसे कोई इनकार नहीं कर सकता। अनेकान्तवाद और स्यावाद : __जैन दर्शन एक वस्तु में अनन्त धर्म मानता है। इन धर्मों में से व्यक्ति अपने इच्छित धर्मों का समय-समय पर कथन करता है। वस्तु के जितने धर्मों का कथन हो सकता है, वे सब धर्म वस्तु के अन्दर रहते हैं। ऐसा नहीं कि व्यक्ति अपनी इच्छा से उन धर्मों का पदार्थ पर आरोप करता है। अनन्त या अनेक धर्मों के कारण ही वस्तु अनन्तधर्मात्मक या अनेकान्तात्मक कही जाती है। ___अनेकान्तात्मक वस्तु का कथन करने के लिए 'स्यात्' शब्द का प्रयोग करना पड़ता है। 'स्यात्' का अर्थ है कथंचित् । किसी एक दृष्टि से वस्तु इस प्रकार की कही जा सकती है। दूसरी दृष्टि से वस्तु का कथन इस प्रकार हो सकता है। यद्यपि वस्तु में ये सब धर्म हैं, किन्तु इस समय हमारा दृष्टिकोण इस धर्म की ओर है, इसलिए वस्तु एतद्रूप प्रतिभासित हो रही है। वस्तु केवल एतद्रूप ही नहीं है, अपितु उसके अन्य रूप भी हैं, इस सत्य को अभिव्यक्त करने के लिए 'स्यात्' शब्द का प्रयोग किया जाता है। इस 'स्यात्' शब्द के प्रयोग के कारण ही हमारा वचन 'स्याद्वाद' कहलाता है। 'स्यात्' पूर्वक जो 'वाद' अर्थात् वचन है-कथन है वह 'स्याद्वाद' है । इसीलिए यह कहा गया है कि अनेकान्तात्मक अर्थ का कथन स्याद्वाद' है।' 'स्याद्वाद' को 'अनेकान्तवाद' भी कहते हैं। इसका कारण १. अनेकान्तात्मकार्थकथनं स्याद्वादः । -लघीयस्त्रयटीका, ६२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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