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कर्मसिद्धान्त
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वेदनायुक्त प्राणी को सब ओर से सब प्रकार के कर्मपुद्गलों का निरन्तर बन्ध, चय और उपचय होता रहता है। परिणामतः उसकी आत्मा ( वाह्य आत्मा-शरीर ) बार-बार कुरूप, कुवर्ण, दुर्गन्ध, कुरस एवं दुःस्मर्श रूप में, अनिष्ट, अकान्त, अमनोज्ञ, अशुभ, अनभीप्सित एवं अनभिधेय स्थिति में तथा अनुनत ( निम्न ) एवं असुखरूप ( दुःखरूप ) अवस्था में परिणत होती रहती है। अल्पकर्मयुक्त, अल्पक्रियायुक्त, अल्लास्रवयुक्त और अल्पवेदनायुक्त प्राणी के कर्मपुद्गल निरन्तर छेदित और भेदित होते रहते हैं तथा विध्वंसित होकर सर्वया नष्ट भी हो जाते हैं। परिणामतः उसकी आत्मा सुरूप यावत् सुखरूप अवस्था में परिणत हो जाती है।' वस्त्रों को पुद्गलों का उपचय अर्थात् मैल लगना प्रयोग से अर्थात् दूसरों के द्वारा भी होता है और स्वाभाविक भी। जीवों को कर्मपुद्गलों का उपचय प्रयोग से ही होता है, स्वाभाविक नहीं। जीवों के प्रयोग तीन प्रकार के हैं : मन:प्रयोग, वचनप्रयोग और कायप्रयोग । इन तीन प्रकार के प्रयोगों द्वारा ही जीवों को कर्मोपचय होता है। पंचेन्द्रिय जीवों के तीन -मनःप्रयोग, वचनप्रयोग और कायप्रयोग, एकेन्द्रिय जीवों के एक-कायप्रयोग तथा विकलेन्द्रिय (द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय ) जीवों के दो-वचनप्रयोग
और कायप्रयोग होते हैं। इस प्रकार व्याख्याप्रज्ञप्ति में कर्मसम्बन्धी अनेक समस्याओं का समाधान किया गया है।
प्रज्ञापना में कर्मवाद का पांच पदों अर्थात् अध्यायों में व्यवस्थित व्याख्यान है। कर्मप्रकृति-पद में ज्ञानावरणीय आदि १. श० ६,उ. ३. २. वही.
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