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जैन धर्म-दर्शन
आठ मूलप्रकृतियों एवं आभिनित्रोविकज्ञानावरणीय (मतिज्ञानावरणीय ) आदि अनेक उत्तरप्रकृतियों का वर्णन है । कर्मबन्ध-पद में ज्ञानावरणीय आदि कर्मों को बांधते हुए जीव कितनी कमंत्रकृतियाँ बाँधता है उसका विचार है । कर्मवेदपद में ज्ञानावरणीय आदि कर्मों को बाँधते हुए जीव कितनी कर्म प्रकृतियों का वेदन करता है-इसका विचार किया गया है । कर्मवेदबन्ध-पद में ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का वेदन करते हुए जीव कितनी कर्म प्रकृतियाँ बाँधना है - इसका विचार हुआ है । कर्मवेदवेद-पद में इस बात का विचार किया गया है कि जीव ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का वेदन करते हुए कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है । जीव दो कारणों से ज्ञानावरणीय कर्म बाँधता है : राग से और द्वेष से । राग दो प्रकार का है : माया और लोभ । द्वेष भी दो प्रकार का है : क्रोध और मान । इसी प्रकार दर्शनावरणीय यावत् अन्तराय कर्म के विषय में भी समझना चाहिए ।" ज्ञानावरणीय कर्म की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की एवं उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटाकोटि सागरोपम का है । अबाधा-काल अर्थात् अनुदय काल तीन हजार वर्ष का है। इसी तरह अन्य कर्मों के विषय में विविध प्रकार की जघन्य एवं उत्कृष्ट स्थिति तथा अबाधा-काल जान लेना चाहिए । जीव ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म बाँधते हुए आठ कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है, वेदनीय कम बांधते हुए आठ, सात अथवा चार कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है इत्यादि ।
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१. ५० २३, सू० ३०
२. ५० २३, सू० २१-२८.
३. १० २५, सू० १.
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