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कर्म सिद्धान्त
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उत्तराध्ययन के कर्मप्रकृति नामक तैंतीसवें अध्ययन में कर्म की आठ मूलप्रकृतियों की अनेक उत्तरप्रकृतियों की गणना की गई है तथा कर्मों के प्रदेश, क्षेत्र, काल और भाव का स्वरूप बताया गया है । ज्ञानावरणीय कर्म पाँच प्रकार का है : १. आभिनिबोधक - ज्ञानावरण, २. श्रुत ज्ञानावरण, ३. अवधि ज्ञानावरण, ४. मन:पर्यय - ज्ञानावरण, ५. केवलज्ञानावरण। दर्शनावरणीय कर्म के नो भेद हैं : १. निद्रा, २. निद्रा-निद्रा, ३. प्रचला, ४. प्रचलाप्रचला ५. स्त्यानगृद्धि, ६. चक्षुर्दर्शनावरण, ७. अचक्षुर्दर्शनावरण, ८ अवधिदर्शनावरण, केवलदर्शनावरण | वेदनीय कर्म दो प्रकार का है : ९. सातावेदनीय और असातावेदनीय | इन दोनों के पुनः अनेक भेद हैं। मोहनीय कर्म के दो भेद है : दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय दर्शनमोहनीय तीन प्रकार का है : सम्यक्त्वमोहनीय, मिथ्यात्वमोहनीय और सम्यङमिथ्यात्व - मोहनीय | चारित्रमोहनीय दो प्रकार का है : कषायमोहनीय और नोकषायमोहनीय । कषायमोहनीय के पुनः सोलह एवं नोकषायमोहनीय के सात अथवा नौ भेद हैं। आयु कर्म के चार प्रकार हैं : १. नरकायु, २ तिर्यगायु, ३. मनुष्यायु, ४. देवायु । नाम कर्म दो प्रकार का है : शुभनाम और अशुभनाम । इन दोनों के पुनः अनेक भेद हैं । गोत्र कर्म दो प्रकार है : उच्चगोत्र और नीचगोत्र । इन दोनों के पुनः आठ-आठ भेद है । अन्तराय कर्म के पाँच प्रकार का है : १. दानान्तराय, २. लाभान्तराय, ३. भोगान्तराय, ४. उपभोगान्तराय, ५. वीर्यान्तराय ।
इस प्रकार आगम साहित्य में जैन कर्मवाद का मूल ढांचा सुरक्षित है । उत्तरवर्ती कर्म - साहित्य में इसी ढांचे का विविध रूपों में विकास हुआ है ।
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