________________
४३८
जैन धर्म-दर्शन
कर्मविशुद्धि की अपेक्षा से अर्थात् आत्मिक विकास की दृष्टि से जीव के चौदह स्थान ( गुणस्थान ) गिनाये गये हैं: १. मिथ्यादृष्टि, २ सास्वादन सम्यग्दृष्टि, ३. सम्यङ मिथ्या दृष्टि, ४. अविरत - सम्यग्दृष्टि, ५ विरताविरत ६. प्रमत्तसंयत, ७. अप्रमत्तमयत ८ निवृत्तित्रादर, ६ अनिवृत्तिवादर, १०. सूक्ष्मसम्पराय ( उपशमक अथवा क्षपक), ११. उपशान्तमोह, १२. क्षीणमोह, १३. सयोगी-केवली, १४. अयोगी-केवली ।"
"
व्याख्याप्रज्ञप्ति ( भगवतीसुत्र ) में कर्मवाद के विविध रूपों का निरूपण हुआ है । अर्जित कर्म का भोग किये बिना मुक्ति नहीं होती, इस तथ्य का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है कि कृत कर्मों का वेदन किये बिना नैरयिक, तिर्यञ्च, मनुष्य तथा देव की विमुक्ति नहीं अर्थात् उन्हें मोक्ष प्राप्त नहीं होता । कर्म दो प्रकार के हैं : प्रदेशकर्म और अनुभागकर्म । इनमें जो प्रदेशकर्म हैं उनका वेदन होता ही है किन्तु अनुभागकर्मों का वेदन होता भी है और नहीं भी । जीव तीन कारणों से अल्प आयुष्य बाँधता है : १. प्राण-हिंसा, २. असत्यभाषण, ३. तथारूप श्रमणब्राह्मण को अनेषणीय अशन-पान - खादिम - स्वादिम का दान | निम्नोक्त तीन कारणों से दीर्घ आयुष्य बँधता है १ अहिंसापालन, २. सत्यभाषण, ३. तथारूप को एषणीय अशन-पान खादिम स्वादिम का हिंसा आदि कारणों से जीव चिरकालपर्यन्त जीने का आयुष्य बाँधता है तथा अहिंसा-पालन आदि कारणों से प्राणी दीर्घ काल तक शुभ रूप से जीने का आयुष्य बाँधता है । महाकर्तयुक्त, महाक्रियायुक्त महाआस्रवयुक्त और महा
:
श्रमण-ब्राह्मण
दान | प्राणअशुभ रूप से
१. समवायांग, १४.
२. श० १, उ० ४.
३. श०५, उ० ६.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org