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________________ कर्मसिद्धान्त भी चार प्रकार का है : १. शुभ और शुभानुबन्धी, २. शुभ और अशुभानुबन्धी, ३. अशुभ और अशुभानुबन्धी, ४. अशुभ और शुभानुबन्धी। प्रकृतिवन्ध आठ प्रकार का है : १ ज्ञानावरणीय (ज्ञान अर्थात् विशेष बोध को आवृत करनेवाला), २. दर्शनाघरणीय ( दर्शन अर्थात् सामान्य बोध को आवृत करनेवाला), ३. वेदनीय (शारीरिक सुख-दुःख प्रदान करने वाला), ४. मोहनीय (आत्मा में मोह उत्पन्न करनेवाला), ५ आयु (भवस्थिति प्रदान करनेवाला), ६ नाम ( शारीरिक वैविध्य प्रदान करनेवाला), ७ गोत्र ( शारीरिक उच्चत्व-नीचत्व प्रदान करनेवाला), ८. अन्तराय ( आदान-प्रदानादि में विघ्न उत्पन्न करनेवाला)। इनके उपभेदों की भी गणना की गई है। इसी प्रकार स्थितिबन्ध एवं अनुभावबन्ध पर भी किंचित् प्रकाश डाला गया है। प्रदेशबन्ध के विषय में दोनों सूत्रों में किसी प्रकार को विशेष चर्चा नहीं है। संवर अर्थात् आस्रव-निरोध के पाँच हेतु बताए गए हैं : १. सम्यक्त्व (सम्यक् श्रद्धा), २. विरति (व्रत), ३. अप्रमाद, ४ अकषाय, ५. अयोग। निर्जरा अर्थात् कर्मनाश के भी पाँच हेतु हैं : १. प्राणातिपात विरमण ( हिंसा-त्याग), २. मृषावाद-विरमण ( असत्य-त्याग), ३. अदत्तादान-विरमण ( चौर्य-त्याग), ४. मैथुन-विरमण ( अब्रह्म त्याग ), ५. परिग्रह-विरमण (आसक्ति-त्याग)।' १. स्थानांग, ३६२. (शुभ = पुण्य, अशुभ-पाप । शुभ के उदय के समय पुनः शुभ का बंध होना प्रथम प्रकार है। इसी तरह अन्य प्रकार भी समझने चाहिए।) २. स्थानांग, ५९६. ३. समवायांग, ५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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