________________
जैन धर्म दर्शन का साहित्य
२७
में आठ उद्देश हैं। प्रथम उद्देश में असमनोज्ञ अर्थात् असमान आचारवाले के परित्याग का उपदेश है । द्वितीय उद्देश में अकल्प्य अर्थात् अग्राह्य वस्तु के ग्रहण का प्रतिषेध किया गया है । अंगचेष्टा से सम्बद्ध कथन या शंका का निवारण तृतीय उद्देश का विषय है। आगे के उद्देशों में सामान्यतः भिक्षु के वस्त्राचार का वर्णन है किन्तु विशेषतः चतुर्थ में वैखानस एवं गार्द्धपृष्ठमरण, पंचम में रोग एवं भक्तपरिज्ञा, षष्ठ में एकत्वभावना एवं इंगिनीमरण, सप्तम में प्रतिमा एवं पादपोपगमनमरण तथा अष्टम में वयः प्राप्त श्रमणों की भक्तपरिज्ञा, इंगिनीमरण एवं पादपोपगमनमरण की चर्चा है | नवम अध्ययन का नाम 'उपधानश्रुत' है । इसमें वर्तमान जैनाचार के प्ररूपक अन्तिम तीर्थंकर श्रमण भगवान् महावीर की तपस्या का वर्णन है । प्रस्तुत अध्ययन में भगवान् महावीर के साधक - जीवन अर्थात् श्रमण जीवन की सर्वाधिक प्राचीन एवं विश्वसनीय सामग्री उपलब्ध है । इसके चार उद्देशों में से प्रथम में श्रमण भगवान् की चर्या अर्थात् विहार, द्वितीय में शय्या अर्थात् वसति, तृतीय में परीषह अर्थात् उपसर्ग तथा चतुर्थ में आतंक एवं तद्विषयक चिकित्सा का वर्णन है । इन सब क्रियाओं में उपधान अर्थात् तप प्रधान रूप से रहता है अतः इस अध्ययन का 'उपधानश्रुत' नाम सार्थक है । इसमें महावीर के लिए 'श्रमण भगवान्', 'ज्ञातपुत्र', 'मेधावी', 'ब्राह्मण', 'भिक्षु', 'अबहुवादी' आदि विशेषणों का प्रयोग किया गया है । प्रत्येक उद्देश के अन्त में उन्हें मतिमान् ब्राह्मण एवं भगवान् कहा गया है ।
द्वितीय श्रुतस्कन्ध की पाँच चूलाओं में से अन्तिम चूला आचारप्रकल्प अथवा निशीथ को आचारांग से किसी समय
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org