________________
दोनों में अन्त कहलाता है तो नहीं हैं। इनका प्रयुक्त
कर्मसिद्धान्त दोनों में अन्तर क्या है ? संसारी आत्मा का चेतन अंश जीव अथवा आत्मा कहलाता है तथा जड अंश कर्म कहलाता है। ये चेतन अंश और जड़ अंश ऐसे नहीं हैं जिनका संसारावस्था में पृथक-पृथक अनुभव किया जा सके। इनका पृथक्करण तो मुक्तावस्था में ही होता है। संसारी आत्मा सदैव कर्मयुक्त होता है तथा कर्म सदैव संसारी आत्मा से संबद्ध होता है। आत्मा जब कर्म से सर्वथा मुक्त हो जाता है तब वह संसारी आत्मा न रहकर मुक आत्मा अर्थात् शुद्ध चैतन्य बन जाता है। इसी प्रकार कर्म जब आत्मा से अलग हो जाता है तब वह कर्म न रह कर शुद्ध पुद्गल बन जाता है। आत्मा से सम्बद्ध पुद्गल द्रव्यकर्म कहलाता है तथा द्रव्यकर्मयुक्त आत्मा की प्रवृत्ति भावकर्म कहलाती है । तात्त्विक दृष्टि से आत्मा व पुद्गल के तीन रूप बनते हैं : १. शुद्ध आत्मा (मुक्त आत्मा), २. शुद्ध पुद्गल, ३. आत्मा और पुद्गल का सम्मिश्रण (संसारी आत्मा)। कर्म के कर्तृत्व-भोक्तृत्व आदि का सम्बन्ध तीसरे रूप से है।
निश्चयनय और व्यवहारनय-जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त का विवेचन निश्चयष्टि व व्यवहारदृष्टि से भी किया गया है। इन दृष्टियों से विवेचन करनेवालों का मत है कि जो परनिमित्त के बिना वस्तु के असली स्वरूप का कथन करता है उसे निश्चयनय (निश्चयदृष्टि) कहते हैं और परनिमित्त की अपेक्षा से जो वस्तु का कथन करता है उसे व्यवहारनय (व्यवहारदृष्टि) कहते हैं।' निश्चय और व्यवहार की इस व्याख्या के अनुसार क्या कर्म के कर्तृत्व-भोक्तृत्व आदि का निरूपण हो सकता है ? परनिमित्त के बिना वस्तु के असली स्वरूप के कथन का अर्थ होता है शुद्ध वस्तु के स्वरूप का कथन । इस १. पचम कर्म ग्रन्थ, प्रस्तावना, पृ० ११०
-
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org