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________________ re जैन धर्म-दर्शन अर्थ के अनुसार निश्चयनय शुद्ध आत्मा एवं शुद्ध पुद्गल का ही कथन कर सकता है, पुद्गलमिश्रित आत्मा का अथवा आत्ममिश्रित पुद्गल का कथन नहीं कर सकता। ऐसी स्थिति में कर्म के कर्तृत्व-भोक्तृत्व आदि का निरूपण निश्चयनय से कैसे हो सकता है ? क्योंकि कर्म का सम्बन्ध संसारी आत्मा से है जो जीव और पुद्गल का सम्मिश्रण है। चूंकि व्यवहारनय परनिमित्त की अपेक्षा से वस्तु का कथन करता है अतः संसारी आत्मा' अर्थात् कर्मयुक्त आत्मा का कथन व्यवहारनय से ही हो सकता है। वस्तुतः निश्चयनय और व्यवहारनय में कोई विरोध नहीं है क्योंकि इन दोनों की विषय-वस्तु भिन्नभिन्न है-इनका क्षेत्र अलग-अलग है। निश्चयनय पदार्थ के शुद्ध स्वरूप का कथन करता है अर्थात् जो वस्तु स्वभावत: अपने आप में जैसी है उसे वैमी ही प्रतिपादित करता है। व्यवहार. नय पदार्थ के अशुद्र अर्थात् मिश्रित रूप का प्रतिपादन करता है। संसारी आत्मा एवं कर्म जीव और अजीव की अशुद्ध अर्थात् मिश्रित अवस्याएं हैं अतः इसका प्रतिपादन व्यवहारनय से ही हो सकता है। ऐसी दशा में कर्म के कर्तृत्व-भोक्तृत्व आदि का निरूपण निश्चयनय से करना अयुक्तियुक्त है। केवल शुद्ध आत्माओं अर्थात् मुक्त जीवों तथा पुद्गल आदि शुद्ध अजीवों का प्रतिपादन निश्चयनय से हो सकता है। कर्म का कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व-निश्चयनय और व्यवहारनय की इस मर्यादा का ध्यान न रखते हए कुछ विचारकों ने कर्म के कर्तृत्व-भोवतृत्व आदि का निरूपण निश्चयनय से करने का प्रयत्न किया है। परिणामतः कर्मसिद्धान्त में अनेक प्रकार की उलझनें उत्पन्न हुई हैं। इन उलझनों का मुख्य कारण है संसारी जीव अर्थात् कर्मयुक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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