________________
५१४
जैन धर्म-दर्शन
अचेलकत्व, अस्नान, क्षितिशयन, अदंतधावन, स्थितिभोजन और एकभक्त । एकभक्त का अर्थ बताते हुए कहा गया है कि मुनि सूर्योदय व सूर्यास्त के मध्य में केवल एकबार भोजन करता है । सूर्यास्त व सूर्योदय के बीच यानी रात्रि में उसके भोजन का सर्वथा त्याग होता है । दशवैकालिक के क्षुल्लिकाचार- कथा नामक तृतीय अध्ययन में निर्ग्रन्थों के लिए औद्देशिक भोजन, क्रीत भोजन, आमन्त्रण स्वीकार कर ग्रहण किया हुआ भोजन यावत् रात्रिभोजन का निषेध किया गया है । षड्जीवनिकाय नामक चतुर्थ अध्ययन में पाँच महाव्रतों के साथ रात्रिभोजन - विरमण का भी प्रतिपादन किया गया है एवं उसे छठा व्रत कहा गया है । आचारप्रणिधि नामक आठवें अध्ययन में स्पष्ट कहा गया है कि रात्रिभोजन हिंसादि दोषों का जनक है । अतः निर्ग्रन्थ सूर्य के अस्त होने से लेकर सूर्य के उदय होने तक किसी भी प्रकार के आहारादि की मन से भी इच्छा न करे । इस प्रकार जैन आचार-ग्रन्थों में सर्वविरत के लिए रात्रिभोजन का सर्वथा निषेध किया गया है । वह आहार, पानी आदि किसी भी वस्तु का रात्रि में उपभोग नहीं करता । जैन आचार - शास्त्र अहिंसाव्रत की सम्पूर्ण साधना के लिए रात्रिभोजन का त्याग अनिवार्य मानता है ।
छः आवश्यक :
Jain Education International
दिगम्बर-परम्परा के भूलाचार आदि एवं श्वेताम्बर - परंपरा के आवश्यक आदि ग्रन्थों में सर्वविरत मुनि के लिए षडावश्यक अर्थात् छः आवश्यकों का विधान किया गया है। इनके नाम दोनों परम्पराओं में वही हैं । क्रम की दृष्टि से पाँचवें व छठे नामों में विपर्यय है। दिगम्बर-परम्परा में इनका क्रम इस प्रकार है : १. सामायिक, २. चतुर्विंशतिस्तव, ३. वन्दना, ४.
For Private & Personal Use Only
-
.
www.jainelibrary.org