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________________ ११६ जैन धर्म-दर्शन द्रव्य है वह अवश्य सत् है । सत् और द्रव्य का यह सम्बन्ध तादात्म्य सम्बन्ध है । दूसरे शब्दों में, सत् और द्रव्य एक है। तत्त्व को चाहे सत् कहिए चाहे द्रव्य कहिए । सत्ता सामान्य की दृष्टि से सब सत् है । जो कुछ है वह सत् अवश्य है, क्योंकि जो सत् नहीं है वह है कैसे ? अथवा जो असत् है वह भी असत् रूप से सत् है, अन्यथा वह असत् नहीं होगा, क्योंकि यदि असत् सत् न होकर असत् है तो वह सत् हो जाएगा। दूसरे शब्दों में, सत् ही असत् हो सकता है, क्योंकि असत् सत् का निषेध है। सर्वथा असत् की कल्पना हो ही नहीं सकती। जिसकी कल्पना नहीं हो सकती उसका असत् रूप से ज्ञान कैसे हो सकता है ? जिसका ज्ञान नहीं हो सकता वह सत् है या असत् यह निर्णय भी नहीं किया जा सकता । इसलिए जो कुछ है वह सत् है । जो सत् है वही अन्य रूप से असत् हो सकता है। इसी दृष्टिकोण को सामने रखते हुए यह कहा गया है कि सब एक है, क्योंकि सब सत् है।' इसी बात को दीर्घतमा ऋषि ने 'एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति'२ सत् तो एक है किन्तु विद्वान उसका कई प्रकार से वर्णन करते हैं ऐसे कहा है । स्थानांग सूत्र में इसी सिद्धान्त को दूसरी तरह से समझाया गया है। वहाँ पर ‘एक आत्मा' और 'एक लोक' की बात कही गई है। जैन दर्शन की यह मान्यता अद्वैत आदर्शवाद के अत्यन्त समीप पहुंच जाती है । अन्तर इतना ही है कि अद्वैतवाद भेद की पारमार्थिक सत्ता स्वीकार नहीं करता, जब कि जैन दर्शन भेद को भी उसी प्रकार यथार्थ और सत् मानता है जिस प्रकार कि अभेद को। हेगल एवं ब्रेडले के १. सर्वमेकं सदविशेषात्-तत्त्वार्थ भाष्य, १. ३५. २. ऋग्वेद, १. १६४. ४६. ३. स्थानांग, :१.:१..४. For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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