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जैन धर्म-दर्शन
चार प्रकार के आहार-अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का त्याग किया जाता है।
दशवकालिक के कर्ता आचार्य शय्यम्भव हैं। इसमें दस अध्ययन हैं। अन्त में दो चूलिकाएं भी हैं। यह मूत्र विकाल अर्थात् सन्ध्या के समय पढ़ा जाता है। द्रुमपुष्पित नामक प्रथम अध्ययन में बताया गया है कि जैसे भ्रमर पुष्पों को बिना कष्ट पहुंचाये उनमें से रस का पान कर अपने-आपको तृप्त करता है वैसे ही भिक्षु आहार आदि की गवेषणा में किसी को तनिक भी कष्ट नहीं पहुंचाता। श्रामण्यपूर्विक नामक द्वितीय अध्ययन में बताया गया है कि जो कामभोगों का निवारण नहीं कर सकता वह संकल्प-विकल्प के अधीन होकर पद-पद पर स्खलित होता हुआ श्रामण्य को प्राप्त नहीं कर सकता। जैसे अगन्धन सर्प अग्नि में जलकर प्राण त्यागना स्वीकार कर लेता है किन्तु वमन किये हुए विष का पुनः पान नहीं करता वैसे ही सच्चा श्रमण त्यागे हुए कामभोगों का किसी भी परिस्थिति में पुनः ग्रहण नहीं करता। क्षुल्लिकाचारकथा नामक तीसरे अध्ययन में निर्ग्रन्थों के लिए औद्देशिक भोजन, क्रीत भोजन, रात्रिभोजन, राज पिण्ड आदि का निषेध किया गया है तथा बताया गया है कि जो ग्रीष्म ऋतु में आतापना लेते हैं, शीतकाल में ठण्ड सहन करते हैं तथा वर्षाऋतु में एक स्थान पर रहते हैं वे यत्नशील भिक्षु कहे जाते हैं। चौथा अध्ययन षड्जीवनिकाय से सम्बद्ध है । इसमें पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय एवं त्रसकाय को मन, वचन एवं तन से हानि पहुंचाने का निषेध किया गया है तथा सर्व प्राणातिपात-विरमण, मृषावादविरमण, अदत्तादान-विरमण, मैथुन-विरमण और परिग्रहविरमणरूप महाव्रतों एवं रात्रिभोजन-विरमणरूप व्रत का प्रति
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