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जैन धर्म-दर्शन ___इन स्तोत्रों के अतिरिक्त उनकी एक कति आप्तमीमांसा है। दार्शनिक दृष्टि से यह श्रेष्ठ कृति हैं। अर्हन्त की स्तुति के प्रश्न को लेकर उन्होंने यह ग्रंथ प्रारम्भ किया। अर्हन्त की ही स्तुति क्यों करनी चाहिए ? इस प्रश्न को सामने रखकर उन्होंने आप्तपुरुष की मीमांसा की है। आप्त कौन हो सकता है ? इस प्रश्न को लेकर विविध प्रकार की मान्य ताओं का विश्लेषण किया है । देवागमन, नभोयान, चामरादि विभूतियों की महत्ता की कसौटी का खण्डन करते हुए यह सिद्ध किया है कि ये बाह्य विभूतियाँ आप्तत्व की सूचक नहीं हैं । ये सब चीजें तो मायावी पुरुषों में भी दिखाई दे सकती हैं । इसी प्रकार शारीरिक ऋद्धियाँ भी आप्तपुरुष की महत्ता सिद्ध नहीं कर सकतीं। देवलोक में रहनेवाले भी अनेक प्रकार की ऋद्धियाँ प्राप्त कर सकते हैं किन्तु वे हमारे लिए महान् नहीं हो सकते। इस प्रकार बाह्य प्रदर्शन का खण्डन करते हुए वे यहाँ तक पहुँचते हैं कि जो धर्म-प्रवर्तक कहे जाते हैं, जैसे-बुद्ध, कपिल, गौतम, कणाद, जैमिनी आदि, क्या उन्हें आप्त माना जाय ? इसके उत्तर में वे कहते हैं कि आप्त वही हो सकता है जिसके सिद्धान्त दोषयुक्त न हों, विरुद्ध न हों। सभी धर्म-प्रवतक आप्त नहीं हो सकते क्योंकि उनके सिद्धान्त परस्पर विरुद्ध हैं। किसी एक को ही आप्त मानना चाहिए।
वह एक कौन है ? इसका उत्तर देते हुए समन्तभद्र ने कहा कि जिसमें मोहादि दोषों का सर्वथा अभाव है और जो सर्वज्ञ है वही आप्त है। ऐसा व्यक्ति अर्हन्त ही हो सकता है क्योंकि अर्हन्त के उपदेश प्रमाण से बाधित नहीं होते। यह जैन दृष्टि की पूर्वभूमिका है। जैन दर्शन निर्दोष एवं सर्वज्ञ अर्हन्तों
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