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जैन धर्म-दर्शन का साहित्य
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न्यायावतार और बत्तीसियों में भी सिद्धसेन ने अपनी मान्यताओं की पुष्टि का पूर्ण प्रयत्न किया है। सिद्धसेन ने सचमुच जैन दर्शन के इतिहास में एक नये युग की स्थापना की ।
समन्तभद्र :
श्वेताम्बर परम्परा में सिद्धसेन का जो स्थान है वही दिगम्बर परम्परा में समन्तभद्र का है । समन्तभद्र की प्रतिभा विलक्षण थी, इसमें कोई संदेह नहीं। उन्होंने स्याद्वाद की सिद्धि के लिए अथक परिश्रम किया । उनकी रचनाओं का छिपा हुआ लक्ष्य स्याद्वाद ही होता है । स्तोत्र की रचना हो तो क्या और दार्शनिक कृति हो तो क्या सभी का लक्ष्य एक ही था और वह था स्याद्वाद की सिद्धि । सभी वादों की ऐकान्तिकता में दोष दिखा कर उनका अनेकान्तवाद में निर्दोष समन्वय कर देना समन्तभद्र की ही खूबी थी । स्वयम्भू स्तोत्र में चौबीस तीर्थ करों की स्तुति के बहाने दार्शनिक तत्त्व का क्या ही सुन्दर एवं अद्भुत समावेश किया है । यह स्तोत्र स्तुतिकाव्य का उत्कृष्ट नमूना तो है ही, साथ ही इसके अन्दर भरा हुआ दार्शनिक वक्तव्य अत्यन्त महत्त्व का हैं । प्रत्येक तीर्थंकर की स्तुति में किसी-न-किसी दार्शनिक वाद का निर्देश करना वे नहीं भूले । स्वयम्भूस्तोत्र की तरह युक्त्यनुशासन भी एक उत्कृष्ट स्तुतिकाव्य है । इस काव्य में भी यही बात है । स्तुति के बहाने अन्य ऐकान्तिक वादों में दोष दिखाकर स्वसम्मत भगवान् के उपदेशों में गुणों के दर्शन कराना इस काव्य की विशेषता है । यह तो अयोगव्यवच्छेद हुआ। इसके अतिरिक्त भगवान् के उपदेशों में जो गुण हैं वे अन्य किसी के उपदेश में नहीं, यह लिखकर उन्होंने अन्ययोगव्यवच्छेद के सिद्धान्त का भी आधार लिया ।
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