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तत्वविचार
१२५ विभंगज्ञानपर्याय, चक्षुर्दर्शनपर्याय, अचक्षुर्दर्शनपर्याय, अवधिदर्शनपर्याय-इन सभी पर्यायों की अपेक्षा से स्यात् षट्स्थानपतित हीन है, स्यात् तुल्य है, स्यात् षट्स्थानपतित अधिक है। इसीलिए नारक के अनन्त पर्याय कहे जाते हैं।' द्रव्यदृष्टि से प्रत्येक नारक समान है। आत्मा के प्रदेश भी सबके असंख्यात हैं। शरीर की दृष्टि से एक नारक का शरीर दूसरे नारक के शरीर से छोटा भी हो सकता है, समान भी हो सकता है और बड़ा भी हो सकता है, शरीर की असमानता असंख्यात प्रकार की हो सकती है। सर्वजघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग के बराबर होगी। क्रमश: एक-एक भाग की वृद्धि से सर्वोत्कृष्ट ५०० धनुष-प्रमाण तक पहुंचती है। इसके बीच के प्रकार असंख्यात होंगे। अतः अवगाहना की अपेक्षा से नारक के असंख्यात प्रकार हो सकते हैं। यही बात आयु के विषय में भी कही जा सकती है । यह तो सामान्य बात हुई । एक नारक के जो अनन्त पर्याय कहे गये हैं, वे कैसे ? शरीर और आत्मा को कथंचित् अभिन्न मानकर वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श को भी नारक के पर्याय मानकर सोचा जाय तो नारक के अनन्त पर्याय हो सकते हैं। इसका कारण यह है कि किसी भी गुण के अनन्त भेद माने गये हैं। यदि हम किसी एक वर्ण को लें
और कोई भाग एकगुण श्याम हो, कोई द्विगुण श्याम हो, कोई त्रिगुण श्याम हो और इस प्रकार उसका अनन्तवाँ भाग अनन्तगुण श्याम हो तो वर्ण के अनन्त पर्याय सिद्ध हो सकते हैं। अन्य वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के विषय में भी यही बात घटाई जा सकती है । यह तो भौतिक अथवा पौद्गलिक गुणों की बात हुई। ज्ञानादि आत्मगुणों के विषय में भी यही बात कही
१. प्रज्ञापना, ५. २४८.
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