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________________ ६५४ जैन धर्म-दर्शन 'सर्वं नास्ति' इन दोनों सिद्धान्तों की परीक्षा की। परीक्षा करके कहा कि जो अस्ति है वही अस्ति है और जो नास्ति है वही नास्ति है । उन्हीं के शब्दों में- 'हम अस्ति को नास्ति नहीं कहते, नास्ति को अस्ति नहीं कहते। हम जो अस्ति है उसे अस्ति कहते हैं, जो नास्ति है उसे नास्ति कहते हैं । " अस्ति और नास्ति दोनों परिणमनशील हैं। यह बात भी महावीर ने स्वीकार की। आत्मा में अस्तित्व और नास्तित्व दोनों के परिणमन का सिद्धान्त स्थापित किया । इस प्रकार अस्ति और नास्ति के सम्बन्ध में भी अनेकान्त दृष्टि की स्थापना की । २ 'अस्ति' और 'नास्ति' को मानने वाले दो एकान्तवादी पक्ष हैं। एक पक्ष कहता है कि सब सत् है- 'सर्वमस्ति' | दूसरा १. नो खलु वयं देवाणु पिया ! अस्थिभावं नत्यित्ति वदामो, नत्थिभावं अस्थिति वदामो । अम्हे गं देवाणुपिया ! सव्व अस्थिभाव अथित्ति वदामी, सव्वं नत्थिभावं नत्थित्ति वदामी | - भगवतीसूत्र, ७.१०.३०४. परिणमइ, नत्थितं नत्थित्ते "परिणमइ । जपणं भंते ! अत्थित्तं अत्थितं परिणमइ नत्थित्तं नत्थिते परिणमइ, तं कि पओगसा वीससा ? २. से नूणं भंते! अत्थित्त अत्थित परिणमइ ? हंता गोयमा गोमा ! पओगसा वि तं वीसा वितं । जहा ते भंते! अत्थितं अस्थित्तं परिणम, तहा ते नस्थित्तं नत्थित्ते परिणमद् ? जहा ते नत्थित्तं नत्थित्त परिणमइ तहा ते अत्थितं अत्थिते परिणमइ ? हंता गोयमा ! जहा में अस्थित्तं • परिणमइ । - वही, १.३.३३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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