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जैन धर्म-दर्शन
'सर्वं नास्ति' इन दोनों सिद्धान्तों की परीक्षा की। परीक्षा करके कहा कि जो अस्ति है वही अस्ति है और जो नास्ति है वही नास्ति है । उन्हीं के शब्दों में- 'हम अस्ति को नास्ति नहीं कहते, नास्ति को अस्ति नहीं कहते। हम जो अस्ति है उसे अस्ति कहते हैं, जो नास्ति है उसे नास्ति कहते हैं । "
अस्ति और नास्ति दोनों परिणमनशील हैं। यह बात भी महावीर ने स्वीकार की। आत्मा में अस्तित्व और नास्तित्व दोनों के परिणमन का सिद्धान्त स्थापित किया । इस प्रकार अस्ति और नास्ति के सम्बन्ध में भी अनेकान्त दृष्टि की स्थापना की । २
'अस्ति' और 'नास्ति' को मानने वाले दो एकान्तवादी पक्ष हैं। एक पक्ष कहता है कि सब सत् है- 'सर्वमस्ति' | दूसरा
१. नो खलु वयं देवाणु पिया ! अस्थिभावं नत्यित्ति वदामो, नत्थिभावं अस्थिति वदामो । अम्हे गं देवाणुपिया ! सव्व अस्थिभाव अथित्ति वदामी, सव्वं नत्थिभावं नत्थित्ति वदामी |
- भगवतीसूत्र, ७.१०.३०४.
परिणमइ, नत्थितं नत्थित्ते "परिणमइ ।
जपणं भंते ! अत्थित्तं अत्थितं परिणमइ नत्थित्तं नत्थिते परिणमइ, तं कि पओगसा वीससा ?
२. से नूणं भंते! अत्थित्त अत्थित परिणमइ ? हंता गोयमा
गोमा ! पओगसा वि तं वीसा वितं ।
जहा ते भंते! अत्थितं अस्थित्तं परिणम, तहा ते नस्थित्तं नत्थित्ते परिणमद् ? जहा ते नत्थित्तं नत्थित्त परिणमइ तहा ते अत्थितं अत्थिते परिणमइ ? हंता गोयमा ! जहा में अस्थित्तं
• परिणमइ । - वही, १.३.३३.
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