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सापेक्षवाद कहता है कि सब असत् है-'सर्वे नास्ति' । बुद्ध ने इन दोनों पक्षों को एकान्तवादी कहा, यह ठीक है, किन्तु उन्होंने उनका सर्वथा त्याग कर दिया। उस त्याग को उन्होंने मध्यम मार्ग का नाम दिया । बुद्ध का यह मार्ग निषेधप्रधान है। महावीर ने दोनों पक्षों का निषेध न करके विधिरूप से अनेकान्तवाद द्वारा समर्थन किया। उन्होंने कहा कि 'सब सत् है', यह एकान्त दृष्टिकोण ठीक नहीं। इसी प्रकार 'सब असत् है, यह एकान्त दृष्टि भी उचित नहीं। जो सत् है, उसी को सत् मानना चाहिए। जो असत् है, उसी को असत् मानना चाहिए। सत् और असत्अस्ति और नास्ति के भेद को सर्वथा लुप्त नहीं करना चाहिए। सब अपने द्रव्य, क्षेत्र आदि की अपेक्षा से सत् है, पर द्रव्य, क्षेत्र आदि की अपेक्षा से असत् है। सत् और असत् का विवेकपूर्वक समर्थन करना चाहिए। जो जिस रूप से सत् हो, उसे उसी रूप से सत् मानना चाहिए। जो जिस रूप से असत् हो, उसे उसी रूप से असत् मानना चाहिए। सत् और असत् के इस भेद को समझे बिना एकान्तरूप से सबको सत् या असत् कहना दोषपूर्ण है। ___ उपर्युक्त विवेचन से यह बात मालूम हो जाती है कि एक और अनेक, नित्य और अनित्य, सान्त और अनन्त, सद् और असद् धर्मों का अनेकान्तवाद के आधार पर किस प्रकार समन्वय हो सकता है। यह समझना भूल है कि अनेकान्तवाद स्वतन्त्र दृष्टि न होकर दो एकान्तवादों को मिलाने वाली एक मिश्रित दृष्टि मात्र है। वस्तु का ठीक-ठीक स्वरूप समझने के लिए अनेकान्त दृष्टि ही उपयुक्त है। यह एक विलक्षण व स्वतन्त्र दृष्टि है, जिसमें वस्तु का पूर्ण स्वरूप प्रतिभासित होता है। केवल दो एकान्तवादों को मिला देने से अनेकान्तवाद नहीं
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