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________________ २६० जैन धर्म-दर्शन भिन्न प्रकार का कोई विशिष्ट ज्ञान सर्वज्ञ को होता हो जिसमें रूपादि की भिन्न-भिन्न गुणों के रूप में प्रतीति न होकर उनका एक समन्वित प्रतिभास होता हो तो भी समस्या हल नहीं होती है क्योंकि इस प्रकार के ज्ञान में रूपादि की स्पष्टता नहीं होगी । रूप-रस- गन्ध-स्पर्श की स्पष्टता के अभाव में सर्वज्ञ यह कैसे कह सकेगा कि प्रत्येक रूपी पदार्थ में रूपादि चारों गुण रहते हैं अर्थात् पुद्गल ( रूपी तत्त्व ) स्पर्श-रस- गन्ध-वर्णयुक्त है ? सर्वज्ञ में समस्त रूपी पदार्थों एवं उनके समस्त गुणों का साक्षात् ज्ञान मानने पर एक भयंकर दोष आता है । संसार में जितने भी रम- गन्ध-स्पर्श - शब्द- वर्ण होंगे उन सबका सर्वज्ञ को साक्षात् अनुभव होगा । उस समय उसकी क्या स्थिति होगी, इसका अनुमान ही लगाया जा सकता है । हम यह नहीं कह सकते कि वह जिसका चाहेगा उसका ज्ञान अथवा अनुभव करेगा और अन्य को यों ही छोड़ देगा । इस प्रकार की इच्छा का कोई युक्तिसंगत कारण नहीं है। जब समस्त पदार्थ यथार्थ हैं, उनके समस्त गुण यथार्थ हैं, सर्वज्ञ की आत्मा समस्त आवरक कर्मों से मुक्त है तो कोई कारण नहीं कि वह अमुक समय में अमुक पदार्थ अथवा गुण का ज्ञान ( अनुभव ) तो करे और अमुक का न करे । वास्तव में उसे समस्त वस्तुओं का सदैव साक्षात् अनुभव होना चाहिए क्योंकि उसके लिए समीप दूर, प्राप्त अप्राप्त, सामर्थ्य असामर्थ्य, इच्छा - अनिच्छा आदि का कोई व्यवधान नहीं है। यदि ऐसा है तो सर्वज्ञ की प्राप्यकारी इन्द्रियां और अप्राप्यकारी इन्द्रियां समान हो जाएंगी । तब उसके शरीर से अग्नि का स्पर्श हो या न हो, कोई अन्तर नहीं पड़ेगा; उसकी जीभ पर विष रखा जाय अथवा नहीं, कोई विशेषता उत्पन्न नहीं होगी; भयंकर दुर्गन्ध उसकी नाक के पास हो अथवा कोसों दूर, कोई भेद दृष्टिगोचर नहीं होगा; Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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