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________________ शानमीमांसा २८६ arraf सर्वज्ञों को सुदूर पर्वतों, समुद्रों, चन्द्र, सूर्य आदि की स्थिति का विशेष प्रत्यक्ष था या नहीं, यह भी संदिग्ध है । रूप, रस, गन्ध, स्पर्श एवं शब्द का ज्ञान इन्द्रिय-सापेक्ष है अर्थात् अमुक इन्द्रिय से रूप का ज्ञान होता है, अमुक से रस ET, अमुक से गन्ध का इत्यादि । संसार में ऐसा कोई भी प्राणी दृष्टिगोचर नहीं होता जिसे चक्षु आदि इन्द्रियों के अभाव में रूप आदि विषयों का ज्ञान होता हो । मन की प्रवृत्ति भी इन्द्रियगृहीत पदार्थों में ही देखी जाती है । जन्मान्ध व्यक्ति का मन कितना ही बलवान् क्यों न हो, उसका ज्ञान कितना ही महान् एवं विशाल क्यों न हो, वह रूप-रंग की कल्पना कथमपि नहीं कर सकता । क्या सर्वज्ञ इन्द्रियों की उपस्थिति में भी इन्द्रियसापेक्ष रूप, रस आदि का ज्ञान इन्द्रियों द्वारा न करते हुए सीधा आत्मा से करता है ? यदि हाँ तो कैसे ? वह संसार के सभी रूपी पदार्थों के रूप, रस, गन्ध एवं स्पर्श का युगपत् साक्षात् ज्ञान करता है अथवा क्रमश: ? क्रमशः होने वाला ज्ञान तो असर्वज्ञता एवं अपूर्णता का द्योतक है अतः वैसा ज्ञान सर्वज्ञ को नहीं हो सकता । युगपत् रूप-रस- गन्ध-स्पर्श का ज्ञान होने पर इनमें पारस्परिक भेद-रेखा खींचना कैसे संभव होगा ? किस आधार से रूप को रम से, रस को गन्ध से, गन्ध को स्पर्श से एवं अन्य प्रकार से इन्हें एक-दूसरे से पृथक किया जा सकेगा ? केवल आत्मा में रूप-रस- गन्ध-स्पर्श का अलग-अलग ज्ञान करने की क्षमता नहीं है क्योंकि चक्षु आदि इन्द्रियों के अभाव में रूप आदि की कल्पना ही नहीं की जा सकती । आत्मा में ऐसे कोई विभाग नहीं हैं जो इन्द्रियों के विषयों का उसी प्रकार भिन्न-भिन्न गुणों के रूप में ज्ञान कर सकें । रूपी पदार्थों का हमारे ज्ञान ( इन्द्रियज्ञान ) से सर्वथा १६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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