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जैन धर्म-दर्शन
दशा, द्वीप, समुद्र, पर्वत, क्षेत्र आदि का वर्णन इत्यादि भौगो लिक विषयों पर काफी चर्चा है ।
चौथे अध्याय में देवों की विविध जातियाँ, उनके परिवार, भोग, स्थान, समृद्धि, जीवनकाल और ज्योतिमंण्डल आदि दृष्टियों से खगोल का वर्णन किया गया है ।
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पांचवें अध्याय में निम्न विषयों पर प्रकाश डाला गया : द्रव्य के मुख्य भेद, उनकी परस्पर तुलना, उनकी स्थिति, क्षेत्र एवं कार्य, पुद्गल का स्वरूप, भेद और उत्पत्ति, सत् का स्वरूप, नित्य का लक्षण, पौद्गलिक बन्ध की योग्यता और अयोग्यता, द्रव्य - लक्षण, काल स्वतन्त्र द्रव्य है या नहीं इसका विचार एवं काल का स्वरूप, गुण और परिणाम के भेद |
छठे अध्याय में आस्रव का स्वरूप, उसके भेद एवं तदनुरूप कर्मबन्धन आदि बातों का विवेचन है ।
सातवें अध्याय में व्रत का स्वरूप, व्रत ग्रहण करनेवालों के भेद, व्रत की स्थिरता, हिंसा आदि अतिचारों का स्वरूप, दान स्वरूप इत्यादि विषयों पर प्रकाश डाला गया है ।
आठवें अध्याय में कर्मबन्धन के हेतु और भेद का विचार किया गया है ।
नवें अध्याय में संवर, उसके साधन और भेद, निर्जरा और उसके उपाय, साधक और उसकी मर्यादा पर विशद विवेचन है ।
दसवें अध्याय में केवलज्ञान के हेतु, मोक्ष का स्वरूप, मुक्तात्मा की गति व स्वरूप आदि पर प्रकाश डाला गया है । तत्त्वार्थ सूत्र पर एक भाष्य मिलता है जो उमास्वाति की
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