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जैन धर्म-दर्शन
नाम लिया है। ठीक वे ही पाँच ज्ञान महावीर की परम्परा में भी प्रचलित हुए । महावीर ने ज्ञानविषयक कोई नवीन प्ररूपणा नहीं की । यदि पार्श्वनाथ की परम्परा से महावीर का एतद्विषयक कुछ भी मतभेद होता तो वह आगमों में अवश्य मिलता । पंचज्ञान की मान्यता श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में प्राय: एक सी है । इस विषय पर केवल - ज्ञान और केवलदर्शन आदि की एक-दो बातों के अतिरिक्त कोई विशेष मतभेद नहीं है । जैन आगमों में पंचज्ञान की मान्यता के कितने रूप मिलते हैं व उनके भेद-प्रभेदों में क्या अन्तर है, इस पर थोड़ा विचार करें । आगमों में ज्ञानचर्चा की तीन भूमिकाएं मिलती हैं ।"
१. प्रथम भूमिका में है और प्रथम भेद के पुनः भगवतीसूत्र में इस प्रकार है
आभिनिबोधिक श्रुत
ज्ञान का सीधा पाँच भेदों में विभाग चार भेद किए गए हैं। यह विभाग
२
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ज्ञान
अवधि
मन:पर्यय
अवग्रह
ईहा
अवाय
धारणा
२. द्वितीय भूमिका में ज्ञान को प्रत्यक्ष और परोक्ष में विभक्त किया गया है । तदनन्तर प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद-प्रभेद करके ज्ञान का विस्तार किया गया है । यह योजना स्थानांग सूत्र में है :
केवल
१. न्यायावतारवार्तिकवृत्ति, प्रस्तावना, पृ० ५८ ( पं० दलसुख मालवणिया ).
२. भगवतीसूत्र, ८.२. ३१७.
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