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जैन धर्म-दर्शन का साहित्य . - ४१ अंगबाह्य आगम पाँच वर्गों में विभक्त हैं : उपांग, मूलसूत्र, छेदसूत्र, चूलिकासूत्र और प्रकीर्गक ।
प्रतिष्ठा आदि की दृष्टि से औपातिक आदि का स्थान अंगों के बाद होने के कारण इन्हें उपांग की कोटि में रखा गया है । उपांग १२ हैं : १. उववाइय-औपपातिक, २. रायपसेणइय-राजप्रश्नीय, ३. जीवाजीवाभिगम अथवा जीवाभिगम, ४. पण्णवणा-प्रज्ञापना, ५. सूरपण्णत्ति-सूर्यप्रज्ञप्ति, ६. जंबुद्दीवपण्णत्ति-जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, ७. चंदपण्णत्ति-चन्द्रप्रज्ञप्ति, ८. निरयाव लिया-निरयावलिका अथवा कप्पियाकल्पिका, . ६. कप्पवडंसिया-कल्पावतंसिका, १०. पुप्फियापुष्पिका, ११. पुप्फचूलिया-पुष्पचूलिका और १२. वण्हिदसावृष्णिदशा। ____ औपपातिक का प्रारम्भ चम्पानगरी के वर्णन से किया गया है। इसके बाद पूर्णभद्र उद्यान, कूणिक राजा, धारिणी रानी, महावीर स्वामी आदि का सांस्कृतिक शैली एवं साहित्यिक भाषा में सुरुचिपूर्ण वर्णन है। प्रसंगवशात् दण्ड, मृत्यु, विधवा, व्रती, साधु, तापस, श्रमण, परिव्राजक, आजीवक, निह्नव आदि का भी यथेष्ट परिचय दिया गया है । राजप्रश्नीय के प्रथम भाग में सूर्याभ देव एवं उसके विमान का विस्तृत वर्णन है। यह देव भगवान् महावीर के समक्ष उपस्थित होकर विविध नाटक-बत्तीस प्रकार की नाट्यविधि प्रस्तुत करता है। द्वितीय भाग में भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के श्रमण केशी और श्रावस्ती के राजा प्रदेशी के बीच हुए जीवविषयक सरस संवाद का सुबोध वर्णन है । राजा प्रदेशी जीव
और शरीर को अभिन्न मानता है। श्रमण केशी उसके मत का निराकरण करते हुए युक्तिपूर्वक जीव का स्वतन्त्र अस्तित्व
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