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जैन धर्म-दर्शन
आधार के सहयोग की आवश्यकता नहीं । 'यह' इस रूप से प्रतिभासित होना भी प्रत्यक्षपूर्वक ही है । 'यह' का अर्थ स्पष्ट प्रतिभास है । जिस प्रतिभास में स्पष्टता न हो, बीच में व्यवधान हो, एक प्रतीति के आधार से दूसरी प्रतीति तक पहुंचना पड़ता हो वह प्रतिभास 'यह' एतद्रूप प्रतिभास नहीं है । ऐसे व्यवहित प्रतिभास को परोक्ष कहते हैं । प्रत्यक्ष में इस प्रकार का कोई व्यवधान नहीं रहता ।
हम यह देख चुके हैं कि जैन तार्किकों ने प्रत्यक्ष का दो दृष्टियों से प्रतिपादन किया । एक लोकोत्तर या पारमार्थिक दृष्टि है और दूसरी लौकिक या व्यावहारिक दृष्टि है । पारमार्थिक दष्टि से पारमार्थिक प्रत्यक्ष का विश्लेषण किया और व्यावहारिक दृष्टि से सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष का अनुमोदन किया । पारमार्थिक प्रत्यक्ष सकल और विकल के भेद से दो प्रकार का है । सकलप्रत्यक्ष केवलज्ञान है और विकलप्रत्यक्ष अवधिज्ञान व मन:पर्ययज्ञान हैं। सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा - ये चार भेद होते हैं । पारमार्थिक और सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के भेद-प्रभेदों का वर्णन पहले किया जा चुका है । यहाँ हम परोक्ष पर थोड़ा-सा प्रकाश डालेंगे |
परोक्ष :
जो ज्ञान अविशद अथवा अस्पष्ट है वह परोक्ष है । परोक्ष प्रत्यक्ष से ठीक विपरीत है । जिसमें वैशद्य
अथवा
१. तद् द्विप्रकारं सांव्यवहारिकं पारमार्थिकं च ।
---प्रमाणनयतत्वालोक, २.४.
२. अविशदः परोक्षम् । - प्रमाणमीमांसा, १.२.१. अस्पष्टं परोक्षम् । - प्रमाणनयतत्त्वालोक, ३.१.
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