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________________ जैन धर्म-दर्शन ही नहीं सकता। वह जो कुछ कहेगा, यथार्थ ही कहेगा क्योंकि अयथार्थ वचन अथवा ज्ञान के कारणों का उसमें सर्वथा अभाव है। ऐसी स्थिति में उसके वचन जिसमें समाविष्ट हैं वह ग्रन्थ मिथ्या कैसे हो सकता है ? उस ग्रन्थ का प्रत्यक्षादि प्रमाणों से खण्डन कैसे हो सकता है ? यदि किसी शास्त्र अथवा ग्रन्थ में वर्णित एवं प्रतिपादित बातों का प्रत्यक्षादि ज्ञानसाधनों से निरसन होता है तो समझना चाहिए कि वह कथन किसी सदोष व्यक्ति का है, निर्दोष व्यक्ति का नहीं। निर्दोष व्यक्ति का कथन किसी भी प्रमाण से खण्डित नहीं हो सकता। विचार अथवा कल्पना के आधार पर भी ग्रन्थ अथवा ग्रन्थांश का निर्माण होता है। यदि इस प्रकार का कथन प्रत्यक्षादि प्रमाणों से अविरुद्ध है तो उसे सहज ही स्वीकार किया जा सकता है। विचारों की गति निर्दोष होने पर उनके आधार पर निकलने वाला निष्कर्ष भी निर्दोष होता है। विचारों में दोष होने पर तज्जन्य निष्कर्ष भी सदोष होता है। यही सिद्धान्त कल्पना पर भी लागू होता है। किसी शास्त्र अथवा ग्रन्थ की प्रामाणिकता-अप्रामाणिकता की कसौटी तद्गत सामग्री ही है। वह सामग्री जितने अंशों में प्रमाणपुरःसर होगी उतने ही अंशों में वह शास्त्र अथवा ग्रन्थ भी प्रामाणिक होगा। सामग्री की परीक्षा किये बिना शास्त्र अथवा ग्रन्थ की प्रामाणिकता का निर्णय नहीं किया जा सकता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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