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कर्मसिद्धान्त
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उपस्थित होने पर भी यह कह दिया जाता है कि अन्तराय कर्म के उदय के कारण अमुक वस्तु प्राप्त न हो सकी आदि । क्या अन्तराय कर्म का सम्बन्ध बाह्य पदार्थों की अप्राप्नि आदि से है ? अन्तराय कर्म का स्वरूप बताते हुए कहा गया है कि अन्तराय शब्द का अर्थ है विघ्न । जिससे दानादि लब्धियाँ विशेषतया हनी जाती हैं अर्थात् विनष्ट की जाती हैं उसे विघ्न यानी अन्तराय कहते हैं :.."विशेषेण हन्यन्ते-दानादिलब्धयो विनाश्यन्तेऽनेनेति... .. विघ्नम्' अन्त रायम् ।' इस व्युत्पत्ति में दानादि लब्धियों को नष्ट करने वाले कर्म को अन्तराय कर्म कहा गया है । लब्धि का अर्थ होता है सामर्थ्य-विशेष अर्थात् शक्तिविशेष । जो कर्म दान-लाभ-भोग-उपभोग-वीर्यरूप शक्तियों का हनन यानी नाश करता है वह अन्तराय कर्म है। जिस प्रकार ज्ञानावरणादि घाती कर्म आत्मा के ज्ञानादि मूल गुणों का घात अर्थात नाश करते हैं उसी प्रकार अन्तराय कर्म भी आत्मा के वीर्य रूपी मूल गुण का घातक है अर्थात् शक्ति का नाश करने वाला है। आत्मा में असीम शक्ति है किन्तु अन्तराय कर्म के उदय के कारण यह शक्ति कुण्ठित हो जाती है। जैसे आत्मा में ज्ञान, दर्शन और सुख की पराकाष्ठा स्वभावतः विद्यमान रहती है किन्तु ज्ञानावरण, दर्शनावरण और मोहनीय कर्म के उदय के कारण उनका घात होता है वैसे ही आत्मा में शक्ति की पराकाष्ठा स्वभावतः विद्यमान होने पर भी अन्तराय कर्म के उदय के कारण उसका पात होता है। यह घात अथवा विघ्न विषयभेद से पांच प्रकार का माना गया है : १ दानान्तराय, २. लाभान्तराय, ३. भोगान्तराय, ४. उपभोगान्तराय, ५. वीर्यान्त१ सटीक प्रथम कर्म ग्रन्थ, पृ० ५. २. पाइअसद्दमहण्णव, पृ० ७२२.
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