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________________ लक्षणात आप विश्व ३४२ जैन धर्म-दर्शन हैं। वे प्रत्येक कार्य को नया मानते हैं। कारण में कार्य नहीं रहता, अपितु कारण से सर्वथा भिन्न एक नया ही तत्त्व उत्पन्न होता है । कुछ एकान्तवादी जगत् को अनिर्वचनीय समझते हैं । उनके मत से जगत् न सत् है, न असत् है। दूसरे लोग जगत् का निर्वचन करते हैं। उनकी दृष्टि से वस्तु का निर्वचन करना अर्थात् लक्षणादि बताना असम्भव नहीं। इसी तरह हेतुवाद और अहेतुवाद भी आपस में टकराते हैं । हेतुवाद का समर्थन करने वाले तर्क के बल पर विश्वास रखते हैं। वे कहते हैं कि तर्क से सब कुछ जाना जा सकता है। जगत् का कोई भी पदार्थ तर्क से अगम्य नहीं। इस वाद का विरोध करते हुए अहेतुवादी कहते हैं कि तर्क से तत्त्व का निर्णय नहीं हो सकता। तत्त्व तर्क से अगम्य है। एकान्तवाद की छत्रछाया में पलने वाले ये वाद हमेशा जोड़े के रूप में मिलते हैं । जहाँ एक प्रकार का एकान्तवाद खड़ा होता है वहाँ उसका विरोधी एकान्तवाद तुरन्त मुकाबले में खड़ा हो जाता है। दोनों की टक्कर प्रारम्भ होते देर नहीं लगती। यह एकान्तवाद का स्वभाव है। इसके बिना एकान्तवाद पनप ही नहीं सकता। एकान्तवाद के इस पारस्परिक शत्रुतापूर्ण व्यवहार को देखकर कुछ लोगों के मन में विचार आया कि इस क्लेश का मूल कारण क्या है ? सत्यता का दावा करने वाले प्रत्येक दो विरोधी पक्ष आपस में इतने लड़ते क्यों हैं ? यदि दोनों पूर्ण सत्य हैं तो दोनों में विरोध क्यों ? इससे मालूम होता है कि दोनों पूर्णरूप से सत्य तो नहीं हैं । तब क्या दोनों पूर्ण मिथ्या हैं ? ऐसा भी नहीं हो सकता, क्योंकि ये जिस सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं उसकी प्रतीति अवश्य होती है। बिना प्रतीति के किसी भी सिद्धान्त का प्रतिपादन सम्भव नहीं। ऐसी स्थिति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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