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जैन धर्म-दर्शन
वेश संस्कार के अन्तर्गत किया गया है वे ही वैशेषिक दर्शन में अदृष्ट के अन्तर्गत समाविष्ट किये गये हैं । रागादि दोषों से संस्कार, संस्कार से जन्म, जन्म से रागादि दोष तथा इन दोषों से पुनः संस्कारों की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार जीवों की यह संसार-परम्परा बीजांकुरवत् अनादि मानी गई है।
सांख्य योग दर्शन के अनुसार अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश इन पाँच क्लेशों के कारण क्लिष्ट वृत्ति उत्पन्न होती है । इस क्लिष्ट वृत्ति से धर्माधर्मरूप संस्कार की उत्पत्ति होती हैं । संस्कार को आशय, वासना, कर्म एवं अपूर्व भी कहा जाता है । इस दर्शन में भी क्लेश और संस्कार की परम्परा बीजांकुरवत् अनादि मानी गई है ।"
मीमांसा दर्शन में यज्ञादि कर्मजन्य अपूर्व नामक पदार्थ का अस्तित्व माना गया है । मनुष्य द्वारा किये जाने वाले यज्ञादि अनुष्ठान अपूर्व नामक पदार्थ को उत्पन्न करते हैं । यह अपूर्व उन अनुष्ठानों - यज्ञादि कर्मों का फल प्रदान करता है। वेदविहित कर्म से प्रादुर्भूत होने वाली योग्यता अथवा शक्ति का ही नाम अपूर्व है, अन्य कर्मजन्य सामर्थ्य का नहीं ।
वेदान्त दर्शन में अनादि अविद्या अथवा माया को विश्व वैचित्र्य का कारण माना गया है । 3 ईश्वर, जो स्वयं मायाजन्य हैं, कर्म के अनुसार जीव को फल प्रदान करता है अतः फलप्राप्ति कर्म से न होकर ईश्वर से होती है । *
१. योगदर्शनभाष्य, १. ५ आदि.
२. शाबरभाष्य, २. १. ५; तन्त्रवार्तिक, २. १. ५ आदि.
२. शांकरभाष्य, २. १. १४.
४. वही, ३.२. ३८-४१..
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