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जैन धर्म-दर्शन का साहित्य
महावीर ने उन्हें श्राश्वासन देते हुए कहा- मैं अभी नहीं मरूंगा किन्तु सोलह वर्ष तक श्रीर जिन के रूप में विचरण करूंगा । अतः तु मेंढिकग्राम में रेवती गृहपत्नी के यहां जा । उसने मेरे लिए दो कपोतशरीर उपस्कृत कर तैयार कर रखे हैं किन्तु उनका मुझे प्रयोजन नहीं है। उसके यहां बासी ( कल का ) मार्जारकृत कुक्कुट मांस है । वह ले भा । उसका मुझे प्रयोजन है । सिंह अनगार रेवती गृहपत्नी के यहां गये एवं महावीर की प्राज्ञानुसार कुक्कुट-मांस लाये । महावीर ने उसका सेवन किया जिससे उनका पीडाकारी रोग शान्त हुआ ।
इस शतक में वfरंगत भगवान् महावीर के कुक्कुटमांस सेवन से सम्बन्धित प्रस्तुत प्रसंग पर विचार करने की आवश्यकता है । विवाद का विषय केवल दो-चार शब्दों के अर्थ तक ही सीमित नहीं है । यह पूरा का पूरा शतक ही विवादास्पद है । उपर्युक्त कुछ विसंगतियों एवं विचित्रताओंों के अतिरिक्त इस शतक में और भी ऐसी अनेक त्रुटियां हैं जो शतककार की प्रामाणिकता में सन्देह उत्पन्न करती हैं। मुझे वो ऐसा प्रतीत होता है कि प्रस्तुत शतक में वणित महावीर - गोशाल का प्रशोभनीय वार्तालाप काल्पनिक है । इसे किसी तरह सच मान लिया जाय तो भी गोशाल की तेजोलेश्या से महावीर जैसे श्रतिशयसम्पन्न पुरुष को प्रत्यन्त पीड़ाकारी पित्तज्वर का दाह उत्पन्न होना एवं खून की दस्तें लगना अजीब-सा मालूम पड़ता है । यह भी किसी तरह सच मान लिया जाय तो भी महावीर द्वारा अपने रोग की चिकित्सा करना उपयुक्त प्रतीत नहीं होता क्योंकि रोगातंक हो या न हो, महावीर ने चिकित्सा की कामना कभी नहीं की। इसे भी किसी प्रकार सच समझ लिया जाय फिर भी महावीर द्वारा कुक्कुटमांस का सेवन तो कदापि युक्तियुक्त नहीं माना जा सकता। इन सब दोषों को देखते हुए यह मानना अनुचित न होगा कि व्याख्याप्रज्ञप्ति का प्रस्तुत शतक प्रक्षिप्त, कृत्रिम एवं प्रप्रामाणिक है ।
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