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________________ कर्म सिद्धान्त वचन-काय की प्रवृत्तियों ( योग ) का सर्वतः ज्ञान प्राप्त कर मेधावी ज्ञानी ( भगवान् महावीर ) ने अनुपम संयमानुष्ठान (क्रिया) का कथन किया। पापरहित अहिंसा का स्वयं आश्रय लिया तथा पापजनक व्यापार से दूसरों को निवृत्त किया। स्त्रियों को सब कर्मों का मूल जानकर उन्होंने स्त्री-मोह का परित्याग किया।' गुणसम्पन्न मुनि के सावधानीपूर्वक विविध प्रवृत्तियाँ करते हुए कदाचित् शरीरसंस्पर्श से कोई प्राणी मृत्यु प्राप्त करे तो उस शिथिल पापकर्म का इसी भव में वेदन होकर स्वतः क्षय हो जाता है। आकुट्टिपूर्वक अर्थात् हिंसा-बुद्धि से यानी जान-बूझकर हिंसादि कार्य करने पर होनेवाला पापकर्म दृढ़ होता है जिसका इस भव में क्षय प्रायश्चि न करने पर ही हो सकता है । * तासर्य यह है कि कषायरहित क्रिया से होने वाला कर्मवन्धन दुर्वल एवं अल्पायु होता है तथा कपायसहित क्रिया से होने वाला कर्मबन्धन बलवान् एवं दीर्घायु होता है । प्रथम प्रकार का बन्ध ईर्यापविक तथा द्वितीय प्रकार का साम्प. रायिक कहलाता है। संयम में संलग्न मेधावी सब प्रकार के पापकर्मों को नष्ट कर देता है। जो दूसरों को होने वाले दुःखों को जानता है वह वीर आत्मपयर रखकर विषयों में नहीं फंसता हुआ पारकर्मों से दूर रहता है । जो करहित हो जाता है वह समस्त सांसारिक व्यवहार से मुक्त हो जाता है क्योंकि कर्मों से ही सब आधिपा उत्पन्न होती हैं । इसलिए हे धीर पुरुषो! तुम मुलका (घाती कर्न) और अग्रकर्म ( अघाती कर्म ) को अपनी आत्मा से पृथक् करो। इस १. श्रु० १, अ० ६, उ० १. २. अ० १, अ० ५, उ० ४. ३. शु. १, १० ३, उ० २. ४. श्र. १, ४० ३, ३० १. - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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