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________________ ×× जैन धर्म-दर्शन कर्मविषयक ऐसे अनेक पहलू हैं जिन पर आगम-ग्रन्थों में विशेष विचार नहीं हुआ है किन्तु कर्मसिद्धान्त की मूल भित्तियों का इनमें अभाव नहीं है । वैसे तो प्रायः प्रत्येक आगम-ग्रन्थ में किसी-न-किसी रूप में कर्मविषयक चिन्तन उपलब्ध होता है किन्तु आचारांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति ( भगवतीसूत्र ), प्रज्ञापना एवं उत्तराध्ययन में कर्मवाद पर विशेष सामग्री प्राप्त होती है । आचारांग में कर्मबन्धन के कारणों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि मैंने किया, मैंने करवाया, मैंने करते हुए का अनुमोदन किया आदि क्रियाएं अर्थात् मन-वचन-काय की प्रवृत्तियाँ कर्मबन्धन के हेतु हैं ।' जो आस्रत्र अर्थात् बन्धन के हेतु हैं वे कई बार परिस्रव अर्थात् बन्धन के नाश के हेतु बन जाते हैं और जो बन्धन के नाश के हेतु हैं वे कई बार बन्धन के हेतु बन जाते हैं । इसी प्रकार जो अनास्रत्र अर्थात् बन्धन के अहेतु हैं वे कई बार अपरिस्रव अर्थात् बन्वत के हेतु बन जाते हैं और जो बन्धन के हेतु हैं वे कई बार बन्धन के अहेतु बन जाते हैं । मन की विचित्रता के कारण जो बन्धन का कारण होता है वही मुक्ति का कारण बन जाता है तथा जो मुक्ति का कारण होता है वही बन्धन का कारण बन जाता है क्योंकि वस्तुतः मन ही बन्त्र एवं मोक्ष का कारण है । संसार में ऊपर, नीचे, तिरछे सर्वत्र कर्म के स्रोत विद्यमान हैं। जहाँ जीव को आसक्ति होती है वहाँ कर्म का बन्धन होता है । 3 दो प्रकार के ( साम्परायिक - कषायसहित और ईर्यापथिक कषायरहित ) कर्मों को जानकर तथा आस्रव के कारणों, पाप के स्रोतों एवं मन २. श्र० १, अ० ४, उ० २. १. श्र० १, अ० १, उ० १. ३. श्र० १, ०५, उ० ६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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