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जैन धर्म-दर्शन
दीक्षा :
प्रव्रज्या अथवा दीक्षा के विषय में सामान्य नियम यही है कि साधु स्त्री को तथा साध्वी पुरुष को दीक्षित न करे । यदि किसी ऐसे स्थान पर स्त्री को वैराग्य हुआ हो जहाँ आसपास में साध्वी न हो तो साधु उसे इस शर्त पर दीक्षा दे सकता है कि दीक्षा देने के बाद उसे यथाशीघ्र किसी साध्वी को सुपुर्द कर दे । इसी शर्त पर साध्वी भी पुरुष को दीक्षा प्रदान कर सकती है। तात्पर्य इतना ही है कि दीक्षा के नाम पर किसी प्रकार से साधु स्त्रीसंग के दोष का भागी न बने और साध्वी पुरुषसंग के दोष से दूर रहे । इसे ध्यान में रखते हुए दीक्षा देने की औपचारिक विधि किसी भी योग्य निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी द्वारा सम्पन्न की जा सकती है । दीक्षित होने के बाद साधु का निर्ग्रन्थ-वर्ग में एवं साध्वी का निर्ग्रन्थी-वर्ग में सम्मिलित होना आवश्यक है । निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को नियमानुसार किसी भी अवस्था में आठ वर्ष से कम आयु के बालक-बालिकाओं को दीक्षा नहीं देनी चाहिए। दीक्षा के लिए विचारों की परिपक्वता भी आवश्यक है। अपरिपक्व आयु, अपरिपक्व विचार एवं अपरिपक्व वैराग्य दीक्षा के पवित्र उद्देश्य की संप्राप्ति में बाधक सिद्ध होते हैं। पंडक, क्लीव आदि अयोग्य पुरुषों को भी दीक्षा नहीं देनी चाहिए ।
प्रायश्चित्त :
प्रायश्चित्त का अर्थ है व्रत में लगनेवाले दोषों के लिए समुचित दण्ड । श्रमण संघ की व्यवस्था सुचारु रूप से चले, इसके लिए दण्डव्यवस्था आवश्यक है । किसी भी व्यवस्था के लिए चार बातों का विचार आवश्यक माना जाता है - १. उत्सर्ग, २. अपवाद, ३. दोष, ४. प्रायश्चित्त । किसी विषय का सामान्य अथवा मुख्य विधान उत्सर्ग कहलाता है । विशेष अथवा गौण विधान का नाम अपवाद है । उत्सर्ग अथवा अपवाद का भंग दोष कहलाता है । दोष से सम्बन्धित दण्ड को प्रायश्चित्त कहते हैं । प्रायश्चित्त से लगे हुए दोषों की शुद्धि होने के साथ ही साथ नये दोषों की भी कमी होती जाती है । यही प्रायश्चित्त की उपयोगिता है । यदि प्रायश्चित्त से न तो लगे हुए दोषों की शुद्धि हो और न नये दोषों की कमी तो वह निरर्थक है - निरुपयोगी है |
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