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श्रमण-संघ
श्रमण-संघ में उपाध्याय का है। इसीलिए गणावच्छेदिनी को उपाध्याया के रूप में भी पहचाना जाता है। श्रमण-संघ में जो स्थान स्थविर का है वही स्थान साध्वीसंघ में अभिषेका का है। इसीलिए उसे स्थविरा भी कहा जाता है। प्रतिहारी रालिक अथवा रत्नाधिक श्रमण के समकक्ष मानी जा सकती है। प्रतिहारी निर्ग्रन्थी को प्रतिश्रयपाली, द्वारपाली अथवा संक्षेप में पाली के रूप में भी पहचाना जाता है। निर्ग्रन्थी-संघ की पदाधिकारिणियाँ भी निर्ग्रन्थ पदाधिकारियों के ही समान ज्ञानाचार-सम्पन्न होती हैं।
मूलाचार के सामाचार नामक चतुर्य अधिकार में संघ के श्रमण-श्रमणियों के पारस्परिक व्यवहार का विचार करते हुए कहा गया है कि तरुण श्रमण को तरुण श्रमणी के साथ संभाषण आदि नहीं करना चाहिए, श्रमणों को श्रमणियों के साथ नहीं ठहरना चाहिए, श्रमणियों को आचार्य से पाँच हाय दूर, उपाध्याय से छः हाथ दूर तथा अन्य साधुओं से सात हाथ दूर बैठकर वंदना करनी चाहिए। श्रमणियों को पारस्परिक संरक्षण की भावना से तीन, पाँच अथवा सात की संख्या में भिक्षा के लिए जाना चाहिए। वैयावृत्य :
वैयावृत्य अर्थात् सेवा के विषय में स्थविरकल्पिकों के लिए सामान्य नियम यही है कि साधु साध्वी से एवं साध्वी साधु से किसी प्रकार का काम न ले। अपवाद के रूप में साधु-साध्वी परस्पर सेवा-शुश्रूषा कर सकते हैं। सर्पदंश आदि विषम परिस्थिति में आवश्यकतानुसार कोई भी स्त्री अथवा पुरुष साधु-साध्वी की औषधोपचाररूप सेवा कर सकता है । जिनकल्पिकों को त्यागी अथवा गृहस्थ किसी से किसी भी प्रकार की सेवा लेना अथवा करना अकल्प्य
निर्ग्रन्थ निग्रन्थियों के लिए सामान्यतया दस प्रकार की सेवा आचरणीय बताई गई है : १. आचार्य की सेवा, २. उपाध्याय की सेवा, ३. स्थविर की सेवा, ४. तपस्वी की सेवा, ५. शैक्ष अर्थात् छात्र की सेवा, ६. ग्लान अर्थात् रोगी की सेवा, ७. साधर्मिक की सेवा, ८. कुल की सेवा, ९. गण की सेवा, १०. संघ की सेवा । इस प्रकार की सेवा से महानिर्जरा का लाभ होता है ।
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