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जैन धर्म-दर्शन
है । पृथ्वी के परमाणु अलग हैं, पानी के परमाणु अलग हैं, तेज . के परमाणु अलग हैं और वायु के परमाणु अलग हैं। ये सारे परमाणु एक-दूसरे से भिन्न हैं । पृथ्वी के परमाणु पानी के परमाणु नहीं बन सकते, पानी के परमाणु पृथ्वी के परमाणुओं में परिवर्तित नहीं हो सकते आदि। यह वैशेषिक दर्शन का परमाणुनित्यवाद है । सब द्रव्यों के परमाणु नित्य होते हैं। उनका कार्य बदलता रहता है किन्तु वे कभी नहीं बदलते । जैन दर्शन ऐसा नहीं मानता । पृथ्वी आदि किसी भी.. पुद्गल द्रव्य के परमाणु अप् आदि रूपों में परिणत हो सकते हैं । परमाणुओं के रूपों में परिवर्तन होता रहता है। नये-नये स्कन्धों के भेद से नये नये परमाण बनते रहते हैं। किसी अन्य स्कन्ध में मिल जाने पर वे उस स्कन्ध के समान हो जाते हैं और पुन: भेद होने पर उस नये रूप में रहने लग जाते हैं। परमाणुओं की ऐसी जातियाँ नहीं बनी हुई हैं जिनमें वे. नित्य रहते हों। एक परमाणु का दूसरे रूप में बदल जाना साधारण बात है । वैशेषिकों के परमाणु-नित्यवाद में जैन दर्शन विश्वास नहीं रखता। ग्रीक दार्शनिक ल्युसिपस और डेमोक्रिटस भी इसी तरह परमाणुओं में भेद नहीं मानते। वे सब परमाणुओं को एक जाति का मानते हैं। वह जाति है भूतसामान्य या जड़सामान्य ।
समीक्षा--पुद्गल का अविभाज्य अंश अणु अथवा परमाणु कहलाता है । अणु इतना सूक्ष्म होता है कि उसका कोई विभाग नहीं हो सकता। वह पुद्गल का सूक्ष्मतम एवं अन्तिम भाग होता है। उसकी सूक्ष्मता का अनुमान इसी से हो सकता है कि वही अपना आदि है, वही अपना मध्य है और वही अपना अन्त है। दूसरे शब्दों में, परमाणु इतना सूक्ष्म होता है कि उसके आदि, मध्य और अन्त जैसे विभाग नहीं हो सकते। उसकी
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