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________________ १८६ तस्वविचार आदि ही उसका मध्य होता है एवं मध्य ही अन्त। उसके आदि, मध्य और अन्त–तीनों एक ही होते हैं। जब वह इतना सूक्ष्म है तो स्वाभाविक है कि उसका इन्द्रियों से ज्ञान नहीं हो सकता अर्थात् वह इन्द्रियों द्वारा अग्राह्य है । ___ क्या पुद्गल का अन्तिम अर्थात् सूक्ष्मतम विभाग हो सकता है ? किसी पदार्थ का छोटा-से-छोटा विभाग कीजिये। वह विभाग रूप, रस, गन्ध एवं स्पर्श से युक्त होगा अतः उसका पुनः विभाग हो सकेगा। वह विभाग भी उसी प्रकार रूपादि गुणों से युक्त होगा अतः उपका भी पुनः विभाग हो सकेगा। इस प्रकार यह प्रक्रिया चलती ही जाएगी। इस प्रक्रिया के अन्तर्गत जो भी विभाग होगा वह रूपादियुक्त होगा। अतएव उसका पुनः विभाग हो सकेगा। ऐसी स्थिति में अन्तिम अर्थात् अविभाज्य अंश जैसी कोई वस्तु होगी ही नहीं। इस शंका का समाधान यों किया जा सकता है : कल्पना से किसी वस्तु का विभाग किया जाय तो उसका अन्त नहीं आ सकता, किन्तु वास्तविक विभाग करने पर ऐसा नहीं हो सकता । जब किसी वस्तु का वास्तविक विभाग किया जाता है तब वह विभाग कहीं-न-कहीं जाकर अवश्य रुक जाता है अर्थात् उस विभाग का किसी-न-किसी रूप में अन्त अवश्य आता है। उससे आगे उसका विभाग नहीं हो सकता। यह अन्तिम विभाग ही अगु अथवा परमाणु कहलाता है। पुद्गल मूर्त अर्थात् रूपी है अतः परमाणु भी रूपी ही माना गया है क्योंकि रूपी का विभाग रूपी ही होगा, अरूपी नहीं। जब परमाणु रूपी है तब वह इन्द्रियों का विषय क्यों नहीं बनता ? परमाणु रूपी होते हुए भी इन्द्रियों से इसलिए नहीं जामा जाता कि वह अति सूक्ष्म है । उसका इन्द्रियों से सम्पर्क Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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