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________________ ६२० जैन धर्म-दर्शन पुरुषों की अनुपस्थिति में विचरण न करें और न कहीं रहें ही। व्यवहारसूत्र के चतुर्थ उद्देश में बताया गया है कि ग्रामानुग्राम विचरते हुए यदि अपने गण के आचार्य की मृत्यु हो जाय तो अन्य गण के आचार्य को प्रधान के रूप में अंगीकार कर रागद्वेषरहित होकर विचरण करना चाहिए। यदि उस समय कोई योग्य आचार्य न मिल सके तो अपने में से किसी योग्य साधु को आचार्य की पदवी प्रदान कर उसकी आज्ञा के अनुसार आचरण करना चाहिए। इस प्रकार के योग्य साधु का भी अभाव हो तो जब तक अपने अमुक साधर्मिक साधु न मिल जायें तब तक मार्ग में एक रात्रि से अधिक न ठहरते हुए लगातार विहार करते रहना चाहिए। रोगादि विशेष कारणों से कहीं अधिक ठहरना पड़ जाय तो कोई हानि नहीं। वर्षाऋतु के दिनों में आचार्य का अवसान होने पर भी इसी प्रकार आचरण करना चाहिए। इस प्रकार की विशेष परिस्थिति में वर्षाकाल में भी विहार विहित निन्थियों के विषय में व्यवहारसूत्र के सप्तम उद्देश में बताया गया है कि तीन वर्ष की दीक्षापर्याय वाले निर्ग्रन्थ को तीस वर्ष की दीक्षापर्याय वाली निर्ग्रन्थी उपाध्याय के पद पर प्रतिष्ठित कर सकती है। इसी प्रकार पाँच वर्ष की दीक्षापर्याय वाले निर्ग्रन्थ को साठ वर्ष की दीक्षापर्याय वाली निर्गन्धी आचार्य अथवा उपाध्याय के पद पर प्रतिष्ठित कर सकती है। तात्पर्य यह है कि साधु-साध्वियों को बिना आचार्यादि के नियन्त्रण के स्वच्छन्दतापूर्वक नहीं रहना चाहिए। अपने जीवन के अन्तिम समय में आचार्य विविध पदों पर नियुक्तियाँ कर सकता है। एतद्विषयक विशिष्ट विधान करते हुए व्यवहारसूत्र के चतुर्य उद्देश में कहा गया है कि यदि आचार्य अधिक बीमार हो और उसके जीने की विशेष आशा न हो तो उसे अपने पास के साधुओं को बुलाकर कहना चाहिए कि मेरी आयु पूर्ण होने पर अमुक साधु को अमुक पद प्रदान करें। आचार्य की मृत्यु के बाद यदि वह साधु अयोग्य प्रतीत न हो तो उसे उस पद पर प्रतिष्ठित करना चाहिए। अयोग्य प्रतीत होने पर किसी अन्य योग्य साधु को वह पद प्रदान करना चाहिए। अन्य योग्य साधु के अभाव में आचार्य के सुझाव के अनुसार किसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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