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________________ आचारशास्त्र ५५३ लिए मानसिक स्वस्थता और शारीरिक शुद्धि दोनों आवश्यक हैं। शरीर स्वस्थ, शुद्ध एवं स्थिर हो किन्तु मन अस्वस्थ, अशुद्ध एवं अस्थिर हो तो सामायिक की साधना नहीं की जा सकती। इसी प्रकार मन स्वस्थ, शुद्ध तथा स्थिर हो किन्तु शारीरिक स्वस्थता, शुद्धता तथा स्थिरता का अभाव हो तो भी सामायिक की निविघ्न आराधना नहीं की जा सकती। सामायिक करने वाले के मन, वचन और कर्म तीनों पवित्र होते हैं। मन, वचन और कर्म में सावधता अर्थात् दोष न रहे, यही सामायिक का प्रयोजन है । इसीलिए सामायिक में सावद्ययोग अर्थात् दोषयुक्त प्रवृत्ति का त्याग एवं निरवद्य योग अर्थात् दोषरहित प्रवृत्ति का आंचरण करना होता है। अमुक समय तक सामायिक व्रत ग्रहण करने वाला व्यक्ति क्रमशः अपने सम्पूर्ण जीवन में समता का विकास करता है । धीरे-धीरे समभाव का अभ्यास करते-करते वह पूरे जीवन को समतामय बना लेता है । जब तक समता जीवनव्यापी नहीं हो जाती तब तक उसका अभ्यास चलता रहता है । यही सामायिक व्रत का यथार्थ आराधना है । निम्नलिखित पाँच अतिचारों से सामायिक व्रत दूषित होता है : १. मनोदुष्प्रणिधान, २. वाग्दुष्प्रणिधान, ३. कायदुष्प्रणिधान, ४. स्मृत्यकरण, ५. अनवस्थितकरण । मन से सावध भावों का अनुचिन्तन करना मनोदुष्प्रणिधान है। वाणी से सावध वचन बोलना वाग्दुष्प्रणिधान है । शरीर से सावध क्रिया करना कायदुष्प्रणिधान है। सामायिक की स्मृति न रखना अर्थात् सामायिक करनी है या नहीं, सामायिक की है या नहीं, सामायिक पूरी हुई हैं या नहीं-इत्यादि विषयक स्मृति न होना स्मृत्यकरण है । यथावस्थित सामायिक न करना, समय पूरा हुए बिना ही सामायिक पूरी कर लेना अनवस्थितकरण है। Jain Education International For Private & Personal Use Only: www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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