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जैन धर्म-दर्शन
हुआ कि आज स्याद्वादरत्नाकर जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ की एक मी सम्पूर्ण प्रति उपलब्ध नहीं है ।
आचार्य हेमचन्द्र के शिव्य रामचन्द्र और गुणचन्द्र ने मिलकर द्रव्यालंकार नामक दार्शनिक कृति का निर्माण किया ।
चन्द्रसेन ने वि० सं० १२०७ में उत्पादादिसिद्धि की रचना की । इस ग्रन्थ में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप वस्तु का समर्थन किया गया है। हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय पर वि० सं० १३८९ में सोमतिलक ने एक टीका लिखी। दूसरी टीका गुणरत्न ने लिखी जो अधिक उपादेय बनी। यह टीका पन्द्रहवीं शताब्दी में लिखी गई ।
इसी शताब्दी में मेरुतुंग ने षड्दर्शननिर्णय नामक ग्रन्थ लिखा । राजशेखर ने षड्दर्शनसमुच्चय, स्याद्वादकलिका, रत्नाकरावतारिकापंजिका आदि ग्रन्थ लिखे । उन्होंने प्रशस्तपादभाष्य की टीका कन्दली पर पंजिका भी लिखी । ज्ञानचन्द्र ने रत्नाकरावतारिकापंजिकाटिप्पण लिखा । भट्टारक धर्मभूषण ने म्यायदीपिका लिखी जो जैन न्यायशास्त्र का प्रारम्भिक ग्रन्थ है | साधुविजय ने सोलहवीं शताब्दी में वादविजय और हेतुखण्डन नामक दो ग्रन्थ लिखे ।
यशोविजय :
तत्त्वचिन्तामणि नामक न्याय के ग्रन्थ से न्यायशास्त्र का एक नया अध्याय प्रारम्भ होता है । इसका श्रेय विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में मिथिला में पैदा होने वाले गंगेश नामक प्रतिभासम्पन्न नैयायिक को है । तत्त्वचिन्तामणि नवीन परिभाषा और नूतन शैली में लिखा गया एक अद्भुत ग्रन्थ है । इसका विषय न्यायसम्मत प्रत्यक्षादि चार प्रमाण हैं । इन चारों प्रमाणों की सिद्धि के लिए गंगेश ने जिस परिभाषा, तर्क और शैली का
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